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रत्नकरण्ड श्रावकाचार 'श्वापि' कुक्कुरोऽपि 'देवो' जायते । 'देवोऽपि' देवः 'श्वा' जायते । कस्मात् ? 'धर्मकिल्विषात्' धर्ममाहात्म्यात् खलु श्वापि देवो भवति । किल्विषात् पापोदयात् पुनर्देवोऽपि श्वा भवति यत एवं, तत: 'कापि' बाचामगोचरा। 'नाम' स्फुटं । 'अन्या' अपूर्वाऽद्वितीया । 'सम्पद' विभूतिविशेषो । 'भवेत्' । कस्मात् ? धर्मात् । केषां ? शरीरिणां संसारिणां यत एवं ततो धर्म एवं प्रक्षावतानुष्ठातव्यः ।।२६।।
अभी तक एक धर्म के ही विविध फलों को प्रकाशित किया, अब यहाँ धर्म और अधर्म दोनों का फल एक ही श्लोक में यथाक्रम से दिखलाते हुए कहते हैं
(धर्मकिल्विषात्) धर्म और पाप से क्रमश: (श्वापि देवः) कुत्ता भी देव और (देवोऽपिश्वा) देव भी कुत्ता (जायते) हो जाता है । यथार्थ में ( धर्मात् ) धर्म से (शरीरिणाम् ) प्राणियों की (कापिनाम अन्या) कोई अनिर्वचनीय ( सम्पत् ) सम्पत्ति ( भवेत् ) होती है।
___टोकार्थ—सम्यग्दर्शनादिरूप धर्म के माहात्म्य से कुत्ता भी देवपर्याय को प्राप्त कर लेता है और मिथ्यात्वादि अधर्म-पाप के उदय से देव भी कुत्ता हो जाता है । इस तरह धर्म का अद्वितीय माहात्म्य है कि जिससे संसारी प्राणियों को ऐसी सम्पदा की प्राप्ति होती है जो वचनों के द्वारा कहीं नहीं जा सकती, इसलिये प्रक्षावानों को धर्म का ही अनुष्ठान करना चाहिए।
विशेषार्थ-प्रकृत कारिका में धर्म शब्द का दो बार प्रयोग किया गया है किन्तु दोनों का अर्थ सम्यग्दर्शन नहीं घटित हो सकता, पहले धर्म का अर्थ तो पुण्य अथवा शुभोपयोग है और दूसरे धर्म का अर्थ सम्यग्दर्शन है । क्योंकि कुत्ते की पर्याय से देव पर्याय प्राप्त हो जाना वास्तव में सम्यग्दर्शन का कार्य नहीं है । उसका कार्य तो ऐसा विलक्षण है जिसका कि उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। यद्यपि तीर्थकरादि कुछ पुण्य प्रकृतियों का बन्ध सम्यग्दर्शन से युक्त जीव के ही हुआ करता है, किन्तु उसका यह अर्थ नहीं है कि उनके बन्ध का कारण सम्यग्दर्शन है । वास्तव में, सम्यक्त्व सहित जीव के कषाययुक्त होते हुए भी एक विशिष्ट प्रकार का शुभ भाव पाया जाता है वही उनके बन्ध का कारण हुआ करता है, न कि सम्यक्त्व । सम्यग्दर्शन तो मोक्ष का कारण माना गया है, बन्ध का कारण नहीं, वह संबर-निर्जरा का कारण है।