SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( उनीस } सैकडों ऐसी कृतियां हैं जो अभी तक प्रकाश में नहीं श्रा सकी हैं और जो कुछ कृतियां प्रकाश में प्रायी है उनकी मी प्राचीनतम पाण्डुलिपि का विवरण हमें ग्रन्थ सूखी के इस भाग में मिलेगा। किसी भी ग्रन्थ को एक से अधिक पाण्डुलिपि मिलना निःसन्देह हो उसकी लोकप्रियता का द्योतक है। क्योंकि उस युग में ग्रन्थों का लिखवाना, शास्त्र भण्डारों में विराजमान करना एवं उन्हें जन जन को पढ़ने के लिये देना जनाचायों की एक विशेषता रहीं श्री ने प्रत्य जप्यार हमारी सतत बावना के प हैं । महत्वपूर्ण साहित्य की उपलब्धि प्रस्तुत ग्रन्थ सूची में सैंकडों ऐसी कृतियां पायी है जिनका हमें प्रथम बार परिचय प्राप्त हो रहा है। ये कृतियां मुख्यतः संस्कृत, हिन्दी तथा राजस्थानी भाषा की हैं। इनमें भी सबसे अधिक कृतियां हिन्दी की हैं। वास्तव में जैन कवियों ने हिन्दी के विकास में जो योगदान दिया उसका श्रमो कुछ भी मूल्यांकन नहीं हो सका है। भले ब्रह्म निवास की ६० से भी अधिक रचनाओं का विवरणास सूची में मिलेगा। इसी तरह और भी कितने ही कवि हैं जिनकी बीस से अधिक रचनाएँ उपलब्ध होती हैं लेकिन अभी तक उनका विशद परिचय हम नहीं जान सके । यहां हम उन सभी कृतियों का संक्षिप्त रूप से परिचय उपस्थित कर रहे हैं जो हमारी दृष्टि में में नयी श्रवथा अज्ञात रचनायें हैं। हो सकता है उनमें से कुछ कृतियों का परिचय विद्वानों को मालुम हो। यहां इन कृतियों का परिचय मुख्यतः विषयानुसार दिया जा रहा है । १ कर्मविपाक सूत्र चौपई (८१) प्रस्तुत कृति किस कवि द्वारा लिखो गयी थी इसके बारे में रचना में कोई उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन कर्म सिद्धांत पर यह एक अच्छी कृति है जिसमें २४११ पद्मों में विषय का वर्णन किया गया है। चौपाई की भाषा हिन्दी है जिस पर गुजराती का प्रभाव है। इसकी एकमात्र पाण्डुलिपि अजमेर के मट्टारकीय शास्त्र भण्डार में संग्रहीत हैं । २ कर्मविपाक रास (८२ कर्म सिद्धान्त पर आधारित रास शैली में निबद्ध यह दूसरी रखना है जिसकी दो पण्डुलिपियां राजमहल (टोंक) के कास्त्र भण्डार में उपलब्ध होती हैं। रचना काफी बड़ी है तथा इसका रचना काल संवत् १८२४ है । ३ चौदह गुणा स्थान वचनिका (३३२) प्रखयराज श्रीमाल १८ वीं शताब्दि के प्रमुख हिन्दी गद्य लेखक थे । 'चौदह गुरु-ज्यान जवनिका' की कितनी हो पाण्डुलिपियां मिलती हैं लेकिन उनका आकार अलग अलग है । दि० जैन तेरहपंथी मन्दिर दौसा में इ-की एक पण्डुलिपि है जिसमें ३६६ । इसमें गोम्मटसार, त्रिलोकसार एवं नबिसार के आधार पर गुथानों सहित पम्प सिद्धान्नों पर चर्चा की गयी है। वचनिका को भाषा राजस्थानी है । खमराज ने रचना के भन्त में निम्न प्रकार दोहा लिख कर उसकी समाप्ति की है ।
SR No.090396
Book TitleRajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal, Anupchand
PublisherPrabandh Karini Committee Jaipur
Publication Year
Total Pages1446
LanguageHindi
ClassificationCatalogue, Literature, Biography, & Catalogue
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy