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________________ { बीस ) चौदह गुरास्थान कथन, भाषा सूनि सुख होय । प्रखयराज योमाल ने, करी जयामति जोय ।। ४ चौबीस गुणस्थान छर्श (३४१) दादूपंथ के साधु गोविन्द दास को इस कृति की उपलब्धि टोडारायसिंह के दि. जैन नेमिनाथ मन्दिर के शास्त्र भण्डार में हुई है। गोविन्द दास नासरदा में रहते थे और उसी नगर में संवत १८५१ फागुण सुदी १० के दिन इसे समाप्त की गयी थी। रचना अधिक बड़ा नहीं है लेकिन कधि ने लिखा है कि संस्कृत और गाथा (प्राकृत) को समझाना कठिन है इसलिये उसने हिन्दी में रचना की है। प्रारम्भ में उसने पंच परमेष्टि को नमस्कार किया है। ५ तस्वार्थ सूत्र भाषा (५३०) सत्दार्थ सूत्र जैनधर्म का सबसे श्रद्धास्पद ग्रन्थ है। संस्कृत एवं हिन्दी भाषा में इस पर पचासों टीकार्ये उपलब्ध होती है। प्रस्तुत ग्रंथ सूत्री में २०० से अधिक पाण्डुलिपियां पायी है जो विभिन्न विद्धानों की टोफानों के रूप में है। प्रस्तुत कृति साहिबराम पाटनी की है जो दूदी के रहने वाले थे तथा जिन्होंने तत्वार्थ सूत्र पर विस्तृत व्याख्या संवत १८१८ में लिखी थी। बयाना के शास्त्र भाण्डार से जो पाण्डलिपि उपलब्ध हुई है वह भी उसी समय की है जिस वर्ष पाटनी द्वारा मूल कृति लिखी गयी थी । कवि ने अपने पूर्ववर्ती विद्वानों को रीकानों का अध्ययन करने के पश्चात् इसे लिखा था। ६ त्रिभंगी सुबोधिनी टीका (६२३) विभंगीसार पर यह पंडित याशाधर की संस्कृत टीका है जिसकी दो प्रतियां जयपुर के दि. जैन मन्दिर, सश्कर के शास्त्र भगहार में संग्रहीत है। नाथूराम प्रेमी से याशाघर के मिन १६ अन्यों का उल्लेख किया है उसमें इस रचना का नाम नहीं है । टीका की जो दो पाण्डुलिपियां मिली है उनमें एक संवत् १५८१ की लिखी हुई है तथा दूसरी प्रसिद्ध हिन्दी विद्वान जोधराज गोदीका की स्वयं की पाण्डुलिपि है जिसे उन्होंने मालपुरा में स्थित किसी श्वेताम्बर बन्धु से ली थी। धर्म एवं आचार शास्त्र ७ क्रियाकोस भाषा (E६६) यह महाकवि दौलतगम कासलीवाल की रचना हैं जिसे उन्होंने संवत १७६५ में उदयपुर मगर में लिखा था । प्रस्तुत पालिपि स्वयं महाकथि की मूल प्रति है जो इतिहास एवं साहित्य की अमूल्य धरोहर है । उस समय कवि उदयपुर नगर में जयपुर महाराजा को भोर से वकील की पद पर नियुक्त थे। ८ चतुर चितारणी (१०५८) प्रस्तुत लघु कृति महाकवि दौलतराम की कृति है जिसकी एक मात्र पाशुलिपि उदयपुर के दि. जैन अग्रवाल मन्दिर में उपलब्ध हुई है। महाकवि का यही मन्दिर काव्य साधना का केन्द्र था । रसमा का दूसरा नाम भवजसतारिणी भी दिया हुआ है । यह कवि की संबोधनात्मक कुक्ति है।
SR No.090396
Book TitleRajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal, Anupchand
PublisherPrabandh Karini Committee Jaipur
Publication Year
Total Pages1446
LanguageHindi
ClassificationCatalogue, Literature, Biography, & Catalogue
File Size30 MB
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