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________________ का तुलनात्मक अध्ययन उपयोगी होगा । किसी समय इस सूची में 5 देशों की संख्या रूढ हो गई थी। ज्ञात होता है कालान्तर में यह संख्या १२४ तक पहुँच गई। गुटका संख्या २२ (ग्रंथ संख्या ५१०२) में नगरों की बसापत का संयत्वार व्यौरा भी उल्लेखनीय है । जैसे संवत् १६१२ अकवर पातसाह श्रामरो बसायो : संवत् १७१४ औरंगसाह पातसाह औरंगाबाद बलायो : संत्रम् १२४५ विमल मंत्री स्वर हुवा विमल बसाई.1 विकास की उन पिछली शतियों में हिन्दी साहित्य के कितने विविध साहित्य रूप थे यह भी अनुसंधान के लिए महत्वपूर्ण विषय है । इस सूची को देखते हुये उनमें से अनेक नाम सामने आते हैं। जैसे स्तोत्र, पाठ, संग्रह, कथा, रासो, रास, पूजा, मंगल, जयमाल, प्रश्नोत्तरी, मंत्र, अष्टक, सार, समुच्चय, वर्णन, सुभाषित, चौपई, शुभमालिका, निशाणी, जकडी, व्याहलो, बधावा, विनती, पत्री, भारती, बोल, चरचा, विचार, बात, गीत, लीला, चरित्र, छंद, छपथ, भावना, बिलोद, कल्प, नाटक, प्रशस्ति, धमाल चौढालिया, चौमासिया, बारामासा, बटाई, बेलि, हिंडोलणा, चूनडी, सम्झाय, बाराखडी, भक्ति, बन्दना, पच्चीसी, बत्तीसी, पचासा, बावनी, सतसई, सामायिक, सहस्रनाम, नामावली, गुरुवावरली, रतवन, संबोधन, मोडलो आदि । इन विविध साहित्य रूपों में से किसका कब आरम्भ हुआ और किस प्रकार विकास और विस्तार हुआ, यह शोध के लिये रोचक विषय है । उसकी बहुमू य सामग्री इन भंडारों में सुरक्षित है। राजस्थान में कुल शास्त्र भंडार लगभग दो सौ हैं और उनमें संचित प्रयों की संख्या लगभग दो लाख के आंकी जाती है। हर्ष की बात है कि शोध संस्थान के कार्यकर्ता इस भारी दायित्व के प्रतिजागरूक हैं। पर स्वभावतः यह कार्य दीर्घकालीन साहित्यिक साधना और बहु व्यय की अपेक्षा रखता है । जिस प्रकार अपने देश में पूना का भंडारकर इन्स्टीट्य ट, तंजोर की सरस्वती महल लाइब्रेरी, मद्रास विश्वविद्यालय की ओरियन्टल मेनस्क्रिप्टस लाइब्रेरी या कलकत्ते की बंगाल एशियाटिक सोसाइटी का ग्रंथ भंडार हस्तलिखित ग्रंथों को प्रकाश में लाने का कार्य कर रहे हैं और उनकें कार्य के महत्व को मुक्त कंठ से सभी स्वीकार करते हैं, आशा है कि उसी प्रकार महावीर अतिशय क्षेत्र के जैन माहित्य शोध संस्थान के कार्य की ओर भी जनता और शासन दोनों का ध्यान शीघ्र आकृष्ट होगा और यह संस्था जिस सहायता की पात्र है, वह उसे सुलभ की जायगी । संस्था ने अब तक आपने साधनों से बड़ा कार्य किया है, किन्तु जो कार्य शेष हैं वह कहीं अधिक बड़ा है और इसमें संदेह नहीं कि अवश्य करने योग्य है । ११ वो शतो से १६ वी शती के मध्य तक जो साहित्य रचना होती रही उसकी मंचित निधि का कुबेर जैसा समृद्ध कोष ही हमारे सामने आ गया है। अाज से केवल १५ वर्ष पूर्व तक इन भंडारों के अस्तिल्द का पता बहुत कम लोगों को था और उनके संबंध में छान बीन का कार्य तो कुछ हुआ ही नहीं था । इस सबको देखते हुगे इस संस्था के महत्वपूर्ण कार्य का व्यापक स्वागत किया जाना चाहिये । काशी विद्यालय ३-१२-१६६१ बासुदेव शरण अग्रवाल
SR No.090395
Book TitleRajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal, Anupchand
PublisherPrabandh Karini Committee Jaipur
Publication Year
Total Pages1007
LanguageHindi
ClassificationCatalogue, Literature, Biography, & Catalogue
File Size19 MB
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