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गुटका-सग्रह ।
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सुंदर पिय मन भावती, भाग भरी सकुमारि । सोइ नारि सतेवरी, जाकी कोठि ज्वारि ।।३।। हित सौ राज मुता, बिलसि तन न निहारि । ज्यां हाथ रेवरह ए, पात्यां मैड कारन भारि ॥४॥ तरसे हूं परसे नहीं, नौदा रहत उदास | जे सर सूकै भादवे, की सी उन्हाले पास ॥५॥
अन्तिमभाग
समये रति पोसत नहों. नारि मिले बिनु नेह ।
औसरि चुक्यौ मेहरा, काई वरसि करह ॥६॥ मुदरी से छलस्यो कार्य, हौं फिर ना पैद । काम सरै दुख वीसरे, वैरी हुवो वैद 1111 मानवतो निस दिन हरे, बालत खरीबदास । नदी किनारे खड़ी, जब तब होइ विनास ॥१०॥ सिव सुखदायक प्रानपति, जरो प्रांन को भोग | नास देसी रूखड़ी, ना परदेसी लोग ॥१०१।। गंता प्रेम समुद्र है, गाहक चतुर सुजान । राज सभा इहै, मन हित प्रीति निदान ॥१०२।।
इति श्री गंगाराम त रस कौतुक राजसभा रझन समस्या प्रबंध प्रभाव । श्री मिती सावरण वदि १२ बुधवार संवत् १८०४ सवाई जयपुरमध्ये लिखी दीवान ताराचन्दजी को पोधी लिखतं माणिवाचन्द बज बांचं जीहने जिसा माफिक बंच्या।
५३६६, गुटका सं० १६१ पत्र सं० ३६ | भाषा-हिन्दी । ले० काल सं० १९३७ प्राषाद मुदी १५ ।।
पूर्ण ।
विशेष---रसालकुंबर की चौपई-नखरू फचि कृत है ।
५४००. गटका सं.२०1 पत्र सं०६८। प्रा० ६४३ इञ्च 1 ले. काले २०१६६५ ज्येष्ठ बुदी १२।।
पूर्ण | दशा-सामान्य।
विशेष-महीधर विरचित मन्त्र महोदधि है।