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गुटका-संग्रह ]
अन्तिम भाग ---
दोहरा -
६. नेमिजी को मंगल
दिभाग
अन्तिम भाग ---
सुभ प्रासन दिठ जोग ध्यान, वर्द्धमान भयो केवल ज्ञान 1 समोसरण रचना प्रति बनी, परम धरम महिमा प्रति तरणी ॥४॥ चल्यो नगर फिरि अरने राइ, चरण सरण जिन प्रति सुख पाइ । समोर पूरण मयो, सुनल पढित पातिंग गलि गर्यो ||३५|| सौरह से सठि समै, माघ इसे सित पक्ष +
लालब्रह्म मनि गीत गति, जसोमंदि पद सिक्ष ||६६ || सुरदेस हथि कंतपुर, राजा वक्रम साहि ।
गुलाला जिन धर्म्म जय, उपमा दीर्ज काहि ॥६७॥
इति समासरन ब्रह्मगुलाल कृत संपूर्ण ||
जगतभूषण के शिष्य
विश्वभूषण
हिन्दी
१६-१७ रचना [सं०] १६६८ श्रावण सुदी
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प्रथम जप परमेष्ठि तो गुर होमो धरी ।
सस्वती कर प्रणाम कविस जिन उच्चरी ॥ सोरठि देस प्रसिद्ध द्वारिका प्रति बनी 1
रवी इन्द्र नै पाइ सुरनि मनि त्रहुकनी ॥
वह कनीय मंदिर चैरथ खीम, देखि सुरनर हरषीयौ । समुद्र विजे वर भूप राजा, सक्क सोभा निरखीयां ॥ प्रिया जा सिव देवि जानौ रूप भ्रमरी ऊसा | राति सुन सूती देखि सुपने षोडशा ॥१॥
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संवत् सोलह से ठान्नु वा जारणीयौ ।
सावन मास प्रसिद्ध अष्टमी मानियो । गाऊं सिकंदराबाद पार्श्वजिन देहुरे ।
श्रवण कीया सुजान धर्म सौ नेहरे ॥ असों ने पति ही देही सबको दान जू । स्यादवाद वानी ताहि माने करें पंडित मान जू ॥