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है दोहा और चौपई मिला कर पद्यों की संख्या २०१ है। कवि ने जो अपना परिचय दिया है वड् निम्न प्रकार है:
संवत् सोलहस सतरौ, फागुण मास जबै ऊतरौ । उजल पारिख तेरसि तिथि जांण, ता दिन कथा गढी परवाणि ।।६।। बरते निवाली मांहि विख्यात, जैनधर्स तसु गोधा जाति । यह कथा भीषम कवि कही, जिनपुरांण मांहि जैसी लही ||७|| सांगानेरी बस सुभ गांघ, मांन नृपति तस चहु खंड नाम । जहि कै राजि सुखी सब लोग, सकल वस्तु को कीजे भोग || जैनधर्म की महिमा बणी, संतिक पूजा होई तिपणी। भावक लोक बस सुजाण, सांझ संवारा सुण पुराण || पाठ विधि पूजा जिगोश्यर कर, रागदोष नहीं मन मैं घरै । दान चारि सुपात्रा देय, मनिष जन्म को लाही लेय ॥२०॥ कडा बंध चौपई जाणि, पूरा हवा दोइस प्रमाण । जिनवाणी का अन्त न जास, मयि जीव से लहे सुखवास ॥२०१॥
इति श्री लधि विधान की चौपई संपूर्ण । ३६ वर्द्धमानपुराण
इसका दूसरा नाम जिनरात्रिव्रत महास्य भी है । मुनि पद्मनन्दि इस पुराण के रचयिता हैं। पह ग्रंथ दो परिच्छेदों में विभक्त है । प्रथम सर्ग में ३५६ तथा दूसरे परिच्छेद में २० पद्य है । मुनि पानन्दि प्रभाचन्द्र मुनि के पट्ट के थे । रचना संवा इसमें नहीं दिया गया है लेकिन लेखन काम के
आधार से यह रचना १५ वीं शताब्दी से पूर्व होनी चाहिए । इसके अतिरिक्त ये प्रमाचन्द्र मुनि संभवतः वेही है जिन्होंने आराधनासार प्रबन्ध की रचना की थी और जो भ० देवेन्द्रकीति के प्रमुख शिष्य थे। ३७ विपहरन विधि
यह एक आयुर्वेदिक रथमा है जिसमें विभिन्न प्रकार के विष एवं उनके मुक्ति का उपाय बतलाया गया है। विषहरन विधि संतोष वैद्य की कृति है। ये मुनिहरप के शिष्य थे । इन्होंने इसे कुछ प्राचीन ग्रंथों के आधार पर तथा अपने गुरु ( जो स्वयं भी वैद्य थे ) के बताये हुए ज्ञान के आधार पर हिन्दी पद्य में लिखकर इसे संवत् १७४१ में पूर्ण किया था। ये चन्द्रपुरी के रहने वाले थे। ग्रंथ में १२७ पोहर चौपई छन्द हैं। रचना का प्रारम्भ निम्न मकार से हुआ है:
अथ विषहरन लिख्यते