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कारणभावना भाषा ( संवत् १६२९ ) अहिका कथा ( संवत् १९२२), रत्नत्रय जयमाल ( संवत् (१९२४) उल्लेखनीय हैं ।
१७ दर्शनसार भाषा
१८ वीं एवं १६ वीं शताब्दी में जयपुर में हिन्दी के बहुत विद्वान होगये हैं । इन विद्वानों मैं हिन्दी भाषा के प्रचार के लिए सैकड़ों प्राकृत एवं संस्कृत के ग्रंथों का हिन्दी गद्य एवं पद्म में अनुवाद किया था | इन्हीं विद्वानों में से पं० शिवजीलालजी का नाम भी उल्लेखनीय है । ये १८ वीं शताब्दी के विद्वान थे और इन्होंने दर्शनसार की हिन्दी गद्य टीका संवत् १८२३ में समाप्त की थी। गद्य में राजस्थानी शैली का उपयोग किया गया है। इसका एक उदाहरण देखिये :
सांच कहतों जीव के उपरिलोक दूखो वा तूपो । सांच कहने वाला तो कहे ही कहा जग का म करि राजदंड छोड देना है वा जूवा का भय करि राजमनुष्य कपडा पटकि देय है ? वैसे निंदने बाले निंदा, स्तुति करने वाले स्तुति करो, सांच बोला तो सांच कहै ।
१८ धर्मचन्द्र प्रबन्ध
धर्मचन्द्र में मुनि धर्मचन्द्र का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। मुनि, भट्टारकों एवं बिद्वानों के सम्बन्ध में ऐसे बहुत कम उपलब्ध होते हैं इस दृष्टि से यह प्रबन्ध एक महत्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक रचना है। रचना प्राकृत भाषा में हैं विभिन्न छन्दों की २० गाथायें हैं ।
प्रबन्ध से पता चलता है कि मुनि धर्मचन्द्र भः प्रभाचन्द्र के शिष्य थे। ये सकल कला में प्रवीण एवं आम शास्त्र के पारगामी विद्वान थे । भारत के सभी प्रान्तों के श्रावकों में उनका पूर्ण प्रभुत्व या और समय २ पर वे आकर उनकी पूजा किया करते थे ।
प्रबन्ध की पूरी प्रति ग्रंथ सूची के पृष्ठ ३६६ पर दी हुई है।
१६ धर्मविलास
धर्मविलास ब्रह्मजिनदास की रचना है । कवि ने अपने आपको सिद्धान्तचक्रवर्ति आ० नेमिara का शिष्य लिखा है। इसलिये ये भट्टारक सकलकीर्ति के अनुज एवं उनके शिष्य प्रसिद्ध विद्वान जिनदाल से भिन्न विद्वान हैं । इन्होंने प्रथम मंगलाचरण में भी आ० नेमिचन्द्र को नमस्कार किया है।
कमलमायंड सिद्धणि तिहुपर्निद सद्पुज्जं । नेमिशसिं गुरुवीरं परणमीय तियशुद्धभोवमहणं ॥ १ ॥
ग्रंथ का नाम धर्मं चविंशतिका भी है। यह प्राकृत भाषा में निवन है तथा इसमें केवल २६ साधायें है। ग्रंथ की अन्तिम पुष्पिका निम्न प्रकार है ।