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मनचा सायर परे, अमल जंतु दुख पाठ | करि गहि काढत तिनहि यह, जैन धर्म विख्यात ॥१२॥
करत परम पद त्रिदश सुख, नाटत गुण विस्तार । नमो ताहि चित हरष वरि, करुणामृत रस धार || २ ||
मध्यभाग (गद्य):-~~(पत्र [सं०
६४) मंदिरा को पीछे था और टू मादिक बस्तु भय करें तब प्रमाद के बने हैं विनाश होग। ताके नाश होते हित हित का विचार होता नाहीं। ऐसे धर्मकार्य तथा कर्म नोटन हुने अष्ट होहि नातें इस मघवत तथा मादिक वस्तु का सर्वथा प्रकार त्याग ही करना जोग्य हैं । ऐस| जानना ।
ग्रंथोत्पत्ति वर्णन प्रशस्तिः
सर्वाकाश अनन्त प्रमान | ताके बीच ठीक पहचान ॥ खोकाकाश असंख्य प्रदेश, ऊरिध मध्य मध्यलोक में जैनू दोष तो है सम द्वीपनि बवनी
व
या दक्षिण दिश भरत नाम क्षेत्र प्रकट सोहै सुरधाम
जहाँ बसें
भूपेश ||
भिमे सुदर्शन ज्ञान | मानू भूमि दंड है मान ||२||
१ ||
ताके मध्य ॐ टाइड देश । बहु शोमा त ल अशेष ॥ ३ ॥ तहाँ सवाई जयपुर नाम | नगर लसत रचना अभिराम ||
बहु जिन मंदिर सहित मनोग्य मानूर गद्य ने जीम्य ॥४॥ जगत सिंह राजा त जान | कंपत अरिगन करे प्रनाम ॥
[ धर्म एवं आचार शास्त्र
तेजयंत अनंत विशाल रीत हुन गम करत निहाय ॥५॥ जैनी लोग सेवल धर्म ने दुख रोम ॥
तिन मधि सरंगा न विशाल । भोगिदास सूत मनालाल || ६ || भाजपने से संगति पाय विद्याभ्यास कियो मनसाय
जैन मंच देखे कुछ बार जयचंद मंदलाल उपकार || नागपुर तीर्थ महान तहि बंदन बायो सुखधाम ||
इन्द्रप्रस्थ पुर शीमा होइ । देहे भयो अधिक मन मोह || || वहां राज अँगरेज करें। कम कंपनी फिरंत ॥ नादस्पा कर सिर से सेवक जननि अन्य बहु दे ॥६॥ इस राग बजाना त तिनके सोहे धरम भरत ॥
मंदिर तिनि नैं रथ्यो महंत । जिनवर तनो धूजा लहर्कत ||
अगरवाल गोत्री गुण नाम चन्द्र पुत्रान ॥१०॥