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गुरके एर्य संग्रह प्रभ
जैसे सीप समद से ज्याग, स्वाति बुद बरर्षे मुय मारी ७|| जैसे चंद कमोड निभावै, जल में असे पर प्रेम पदार्थ । जैसे कंबल नर ते प्यारो, जैसी विधि 5 पीयारो ॥८ जैसे कनिक में काई लाने, अनि दीका ते काती जानें । सुत लपेटि ग्रीन में दं, मोहरे की सत्या नही छीजै ||६|| धू चरित जे को भने, मन वध कम चित लान । हरिपुरन सक कामना, भक्ति पुति कस पाय ।।१०॥ ममृधा सत्र कामद करू', सास्ता लिखु अनाय ।
अनिशि कीमिये, मान समाय || मैं जानी मति प्रापनी, फलिप कही कछु घात । प्रकसतत अपराध को, जन गोपाल पित मात ॥१९॥
इति श्री धू वस्ति संपूरय समापसा । () भक्ति भावती-भक्तिभाव)
हिन्दी पारम्भ-सव सेतन को नाथ माथा, जाप्रसाद त भयो सुनाथा ।
भत्र जल पार गयौ की छाहै, तो संत नरन रज सांस नदात्रै ॥२॥ जे. नारायण यंतरजामी, सब की दुधि प्रकासक स्वामी !
तुम वाणी मैं प्रगटो थाई, निर्वति. पस्नति देह भताई ।।
दोहा---पर्म हंस प्रास्तादित चस्न, ... ... .. केवल मकरंद।
नमो ........" सामानंद नमो धनत्तानंद १३॥ में प्रवृति को दुख नहिं जाने, तो निवृति भी क्यों मनमाने ।
कलि अायान भी विस्तारा, पुरचा ""."मही संचारा ||४|| अन्तिम-भगति मावती बाकी नरमा, दुख खंडन सम सुख विसराभा ।
सीखें सुपर करें विचारा, तो कलि कुसम्मल को न रूयौ कारा || २७५ ॥॥
मलप सब नाही जाय केला, म सुख पाच चारै जेला || योहा---जो बहू गुम त मति लहें डू पंदित वुभै होई ।
सो सच याही . लहैं . निकै सोथै कोय ।। २७६ ।। चौपई --हारिका का बल्ला जो पावं, ले माती आगे गुमरान ।
मली दुरी लेहि पिछांनी, गौ तुम श्रम में यह पानी ॥ २७७ ॥ श्रम बहैबो कहा ते काई, अपणो फल से श्रागे धरई । जैसी क्रिफा. तुम मोस्यू कीन्ही, तैसी मैं बायी कहि दी हो।।