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गुटके एवं संग्रह मन्थ ]
[२६१ विन जाने बहु दुख है जॉन ते उहि जात । तीन काल में एक रस सो निज रूप रहात ||१८|| गृह त्यागी रामी नही, मागी भ्रम जग प्रीति ।
हरि पानी जागी सबुधि इह वैरागी राति ॥२५॥ अन्तिम पाठ-असो हरि को निज धर्म मुनि मन भयो हुलास ।
तातै इह भाषा फरी लघु मति रथो दास ॥२६४॥ गुनी मुनी पंडित कवि चतुर विधकी सोध । कियो मन्थ उनमान विधि विभा सकल अपराध ।। दक्ति मुक्ति तुक छद गति माव दरन मन हीन । इक गुन हरि को गुन वरन तातै गु-पौ प्रवीन |२६६ सतरसे पालीसघिय संवत् माघ अन्य । प्रगट भयो सृदि पंचमी ज्ञान सार सुख रूप ||१७|| मुनत गुमत जे ज्ञान सत नसत अस्त भ्रम रूप | भव नावत वित निगम पावत ब्रह्म सरूप |॥२६॥ मुख पार अधार सत्र सोखन सल विकार । पार करत संसार सर महासर को सार ॥२६॥ राघव लापत्र केरि करि कहत सब संतन सौं शुक्ति । प्रम दान घो जानि जन संत संग हरि भक्ति ॥२०॥
॥ इति शानसार रघुनाथ सात संपूर्ण || (२) गण भेद-रघुनाथ साह । पत्र संख्या ३ । भाषा-हिन्दी पप विषय-छंद शास्त्र ( १५:४ से ३० तक)। पद्य संख्या-१५ । पूर्ण।
पारम्भ-गरिनंद श्रानन्द कर विघन घाय बहु माय ।
श्रादि कावि के राज कबि मंगल दाय मनाय ||२|| प्रथम चरिन ब्रजराज के गाय मु मन वचकाइ । जन्म सुधारित धारि कुल कलमल सकल नसाइ ॥२॥ हरि गुन भेद विना अमल फल दुह लोक अपार । रहन सकत नर कवित्त विनि तिन मधि विवधि विचार ||२||
मध्य भाग दोहा-अष्ट गणागम श्रमरफल पशुम च्यारि शुभ ग्यारि ।
रात्र मनि कवि राज पनि धरहु बिचारि विचारिता१०||