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पं० सदासुखजो कासलीवाल
१. तत्त्वार्थसूत्र टीका
२. रत्नकरएडभावकाचार भाषा समाप्ति--
__ शास्त्र भण्डारों की छानबीन करने, ग्रन्थ सूची बनाने आदि का काम कितना परिश्रम साध्य तथा इसमें कितना समय लगता है इसे तो वे ही जान सकते हैं जिन्हें कभी इसका अनुभव हुआ हो। हमारे शास्त्र भण्डारों की अवस्था एवं वहाँ के व्यवस्थापकों का व्यवहार इस कार्य में कितना सहयोगी बनता है इसे यहाँ लिखने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि साहित्यिक क्षेत्र में काम करने वालों से यह छुपा हुआ नहीं है। लेकिन फिर भी हमें यदि कुछ साहित्य सेवा करनी है तो इन सब बातों की ओर से उपेक्षा वृत्ति हो धारण करनी पड़ेगी।
प्रस्तुत ग्रन्थ सूची विद्वानों के साथ २ साधारण पाठकों के लिये भी उपयोगी बन सके इसके लिये काफी प्रयत्न किया गया है | जहाँ तक हो सका वहाँ तक ग्रन्थकर्ता, भाषा, रचनाकाल, लेखनकाल, शुद्ध एवं अशुद्ध आदि की जानकारी देने में काफी प्रयत्न किया गया है, फिर भी यदि कहीं गल्तो रह गयी हो तथा प्रन्थ सूची तैय्यार करने की रीति में कहों सुधार की आवश्यकता हो तो पाठकगए मुझे सूचित करने का कष्ट करें जिससे भविष्य में प्रकाशित होने वाली ग्रन्थ सूचियों में उन्हें दूर किया जा सके ! धन्यवाद समर्पण
सबसे पहिले मैं श्री दि. जैन अ. क्षेत्र श्री महावीरजी के मन्त्री महोदय श्रीमान् सेठ बधीचन्दजी गंगवाल एवं अन्य सदस्यों को धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने क्षेत्र की आय का एक भाग साहित्य सेवा में लगाने का निश्चय किया है, तथा राजस्थान के सभी शास्त्र भएडारों को छानबीन करने तथा उनकी सूची आदि प्रकाशित कराने का सकिय एवं प्रशंसनोय. कदम उठाया है । उनका यह प्रयास समाज की अन्य क्षेत्र संस्थाओं के लिये अनुकरणीय है।
पं० लूणकरजी के मन्दिर के प्रबन्धक बाबू मिलापचन्दजी बागायतवालों को धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता जिन्होंने अपने शास्त्र भण्डार की सूची बनाने में सक्रिय सहयोग दिया । वास्तव में आप जैसे युवक यदि अन्य शास्त्र भण्डारों की सूची आदि बनाने में सहयोग देवें तो यह कार्य काफो शीघ्रता से किया जा सकता है। .
श्री दि० जैन मन्दिर बडा तेरह पंथियों के प्रमुख प्रबन्धक स्व० श्री केशरलालजी पापडीवाल भी धन्यवाद के पात्र हैं। आपको शीन ही शास्त्र भण्डार को व्यवस्थित एवं उसकी प्रकाशित सूची को देखने की तीत्र इच्छा थी, लेकिन दुःख है कि श्राप एकाएक चल बसे! आपको हमेशा मन्दिर के प्रबन्ध एवं उसकी व्यवस्था की चिन्ता रहती थी। इसलिये आप अपना अधिकांश समय इसी कार्य में व्यतीत किया करते थे।