SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समIREILLERY उनका शोधन प्रायश्चित्त से करते रहना चाहिए। आगे-२ इसी प्रकार करते रहने से अपराध होना रुक जाता है और आत्मा निर्दोष या दोषमुक्त हो जाती है। इसीलिए इस ग्रन्थ की महत्तता बहुत बढ़ जाती है। क्योकि यह गृहस्थियों के लिए अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ है। परन्तु यह ध्यान देने की बात है कि प्रायश्चित्त देने का अधिकार हर एक को नहीं है । जिसको अनुभव है, ग्रंथों को पढ़ा है। दीर्घकालीन दीक्षित हैं ऐसे आचार्य को ही देने का अधिकार है । दिगम्बराचार्य साधुओं को और गृहस्थाचार्य गृहस्थों को उनके अपराधों की शुद्धि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, बल, वीर्य के अनुसार करने के लिए आज्ञा है। इसी व्यवस्था के चलने पर भव्य प्राणियों की आत्मा की शुद्धि होगी और धर्म की वृद्धि होगी। कहा भी है दव्वेखेत्ते काले भावे च कदावराहसोहणयं । जिंदण गरहण जुत्तो मण वच कायेण पांडकमणं !! अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से हुए अपराध का शोधन निंदा गरहा सहित मन-वचन-काय से प्रतिक्रमण द्वारा होता है। आत्म साक्षी में अपराध का निवेदन निंदा कहा जाता है और गुरु की साक्षी में अपराध का निवेदन गरहा कहा जाता है। गुरु की भक्ति का माहात्म्य दिखाते हुए कहते हैं किईपिथे प्रचलताऽद्य मया प्रमादा-द्वेकेन्द्रिय प्रमुख जीव निकाय बाधा। निवर्तिता यदि भवेदयुगांतरेक्षा, मिथ्या तदस्तु दुरितं गुरु भक्तितो मे ।। अर्थात्- ईर्यापथ में गमन करने से तीव्र गति से चलने में आज मेरे द्वारा प्रमाद ' से एकेन्द्रिय आदि जीवों की चार हाथ जमीन देखने में चलने में पैरों में आकर उनको यदि बाधा हुई है तो वह मेरे पाप गुरु भक्ति के प्रसाद से मिथ्या होवें। आर्यिका शीतलमति प्रायश्चित्त विधान - ७०
SR No.090385
Book TitlePrayaschitt Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagar Aankalikar, Vishnukumar Chaudhari
PublisherAadisagar Aakanlinkar Vidyalaya
Publication Year
Total Pages140
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy