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________________ rnxxrILLIKET दूसरा नाम उपस्थापन है। कोई-कोई महानतों का मूलोच्छेद होने पर दीक्षा देने को उपस्थापन कहते हैं। साधु और गृहस्थ दोनों से ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, बल, वीर्य के कारण से अपराध होना संभव है। परन्तु उसका शोधन करना उन्नति का कारण है। जिसका साधु को अपराध शोधन के लिए शास्त्र है वैसे ही गृहस्थ के अपराधों के शोधन के लिए भी पूर्वाचार्यों के द्वारा लिखित शास्त्र है। एक समय था जब शास्त्रों को विरोधियों ने जलाया और वे छह महीने तक जलते रहे। फिर हमारे गुरुओं ने दुखहारी सुखकारि कहै सीख गुरु करुणा धारि । इसके अनुसार पुनः मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने के लिए लिपिबद्ध किये । यथार्थता तो यही है कि प्रायश्चित करने पर भव्य प्राणी साधु या गृहस्थ निर्विकल्प हो जाता है और अपने पूर्ववत् आत्मा के लक्ष्य तक पहुंच जाता है। ऐसे ही परम पूज्य मुनिकुंजर आचार्य आदिसागरजी महाराज अंकलीकर बीसवीं सदी के सर्वप्रथम हुए हैं जिन्होंने आद हिंदक दव्वं परहिदं च कादच्वं को चरितार्थ किया है। उन्होंने जिनधर्म रहस्य, उद्बोधन, दिव्यदेशना, अंतिम दिव्य देशना, शिवपथ, वचनामृत इत्यादि साहित्य आत्महितार्थ समाज को दिये हैं। तथा इसी साहित्य में एक विशिष्ट ग्रंथ प्रायश्चित्त विधि नामक ग्रंथ है जो अपने में एक अनूठा है। गृहस्थों के अपराधों की शुद्धि के लिए एक अपूर्व ग्रंथ है। वर्तमान में ऐसे ग्रन्थ की बहुत आवश्यकता थी। जो अभी उपलब्ध हुआ है । यह लिखा तो सन् १९१५ में था जैसा जीव का पुण्य पाप होता है वैसा अजीव का भी पुण्य-पाप होता है। पुण्यात्मा प्राणी का उपयोग सभी जगह होता है। वैसे ही अजीव का भी उपयोग होने के समय में ही लाभ होता है। प्रस्तुत ग्रन्थ भी आज ८८ वर्ष बाद उपलब्ध होकर कार्यान्वित हो रहा है। कोई समय की अनुकूलता या योग्यता होती है तब प्राप्त हो पाती है। इसी का नाम काल लब्धि भी है। उन्हीं के पट्टाधीश आचार्य परमेष्ठी महावीरकीर्ति जी महाराज कहते हैं कि आज के बलवीर्य या संहनन के हीन होने से अपराधों का होना स्वाभाविक है। प्रायश्चित विधान - ६१
SR No.090385
Book TitlePrayaschitt Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagar Aankalikar, Vishnukumar Chaudhari
PublisherAadisagar Aakanlinkar Vidyalaya
Publication Year
Total Pages140
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size3 MB
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