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समाचारपाना
कथन के साथ स्यात् शब्द का प्रयोग करने से सर्वथा एकान्त दृष्टि का परिहार हो जाता है। स्याद्वाद में वस्तु के अनेक धर्मों का कथन होने के कारण उसे अनेक धर्मवाद अथवा अनेकान्तवाद कहते हैं।
इसी स्याद्वाद को अकलंक देव आचार्य ने लघीयस्त्रय ग्रन्थ के प्रमाण प्रवेश प्रकरण के प्रारम्भ में तीर्थंकरों को पुनः पुनः स्वात्मोपलब्धि के लिए प्रणाम करते समय स्याद्वादी शब्द से समलङ्कृत किया है । कितना भावपूर्ण मंगल श्लोक है -
'धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमो नमः।
ऋषभादिमहावीरान्तेभ्यः स्वात्मोपलब्धये। इस स्यहाड नापी के आधार पर प्रहामाम काराविहान जिनेन्द्र भगवान में सर्वज्ञता का सभाष सूचित करते है । जिनेन्द्र वृषभनाथ का स्तव करते हुए कहते हैं -
"सार्वज्ञं तव वक्तीश वचः शुद्धिरशेषगा। नहि वाग्विभवो मन्दधियामस्तीह पुष्कलः ।।१३३॥ वक्तृप्रामाण्यतो देव वचः प्रामाण्यमिष्यते । न ह्यशुद्धतराद्वक्तुः प्रभवन्त्युज्जवला गिरः॥ १३४ ॥ सप्तभंग्यात्मिके यं ते भारती विश्वगोचरा । आप्तप्रतीतिममला त्वय्युद्भावयितुं क्षमा ।।१३५ ।।"
- महापुराण, पर्व ३३॥ . "हे ईश, आपकी सार्वत्रिकी वाणी की पवित्रता आपके सर्वज्ञपने को बताती है। इस जगत् में इस प्रकार का महान् वचन वैभव अल्पज्ञों में नहीं दिखाई पड़ता है।"
"प्रभो ! वक्ता की प्रामाणिकता से वचन की प्रामाणिकता मानी जाती है। अपवित्र वक्ता के द्वारा उज्ज्वल वाणी नहीं उत्पन्न होती है। __"आपकी विश्व विषयिणी सप्तभंग रूप भारती आप में विशुद्ध आप्त प्रतीति को उत्पन्न करने में समर्थ है।" Anurrxxxपापा
प्रायश्चित विधान -४