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कि यह सर्प नहीं रस्सी है - इससे डरने का कोई कारण नहीं है।
पुरातन काल में जब साम्प्रदायिकता का नशा गहरा था, तब इस स्याद्वाद सिद्धान्त की विकृत रूप रेखा प्रदर्शित कर किन्हीं-किन्हीं नामांकित धर्माचार्यों ने इसके विरूद्ध अपना रोष प्रकट किया और उस सामग्री के प्रति 'बाबा वाक्यं प्रमाणम्' की आस्था रखने वाला आज भी सत्य के प्रकाश में अपने को वंचित करता है। आनन्द की बात है कि इस युग में साम्प्रदायिकता का भूत वैज्ञानिक दृष्टि के प्रकाश में उतरा इसलिए स्याद्वाद की गुण-गाथा बड़े-बड़े विशेषज्ञ गाने लगे । जर्मन विद्वान् प्रो. हर्मन जेकोबी ने लिखा है - जैन धर्म के सिद्धान्त प्राचीन भारतीय तत्वज्ञान और धार्मिक पद्धति के अभ्यासियों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इस स्याद्वाद से सर्व सत्य विचारों का द्वार खुल जाता है।" गाँधीजी ने लिखा है ... जिस कार को जाता है उसी प्रकार मैं उसे मानता हूँ। मुझे यह अनेकान्त बड़ा प्रिय है।"
अब हमें देखना है कि यह स्याद्वाद क्या है जो शाम्त गम्भीर और असम्प्रदायिकों की आत्मा के लिए पर्याप्त भोजन प्रदान करता है। स्यात्' शब्द कथञ्चित् किसी दृष्टि से (From some point of view) अर्थ का बोधक है। 'वाद' शब्द कथन को बताता है । इसका भाव यह है कि वस्तु किसी दृष्टि से इस प्रकार है, किसी दृष्टि से दूसरी प्रकार है। इस तरह वस्तु के शेष अनेक धर्मोंगुणों को गौण बनाते हुए गुण विशेष को प्रमुख बनाकर प्रतिपादन करना स्याद्वाद है। स्वामी समन्तभद्र कहते हैं - "स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् किंवृतचिदिधिः।"
__ - आप्तमीमांसा १०४ लषीयस्त्रय में अकलंकदेव लिखते हैं - "अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वादः"- अनेकान्तात्मक अनेक धर्म विशिष्ट वस्तु का कथन करमा स्याद्वाद
उपयोगी श्रुतस्य द्वौ स्याद्वादनयसंजितौ । स्थाद्वादः सकलादेश: नयो विकलसंकथा।
-लघीयस्त्रय
प्रायश्चित विधान -३