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ल्पापराधानुरूप दोष प्रशमनं चिकित्सितवति धेयं । जीवस्यासंख्येयलोक मात्र परिणामाः परिणामविकल्पा: अपराधाश्च तावन्त एवं न तेषां तावद्विकल्पं प्रायश्चित्तमस्ति व्यवहार नयापेक्षया पिण्डीकृत्य प्रायश्चित्त विधान मुक्तं।
- राजवार्तिक देता, काल, शाकि और कार में किसी राइड का विरोध न आने पावे और छोटा बड़ा जैसा अपराध हो उसके अनुसार वैद्य के समान दोषों का शमन करना चाहिए। प्रत्येक जीव के परिणामों के भेदों की संख्या असंख्यात लोक मात्र है, और अपराधों की संख्या भी उतनी है परन्तु प्रायश्चित्त के उतने भेद नहीं कहे हैं।
इसी बात को दृष्टिगत रखते हुए परम पूज्य मुनि कुञ्जर समाधि सम्राट श्री १०८ आचार्य आदिसागरजी महाराज 'अंकलीकर' ने अपने ज्ञान बुद्धि विवेक सहित इस प्रायश्चित्त विधान ग्रन्थ की रचना करके श्रावकोचित प्रायश्चित्त की व्यवस्था की है वे अपने इस ग्रन्थ में और आगे लिखते हैं।
अस्पृश्यां विलोकेपित तद्धवः श्रुतिगोचरे। भोजनं परिहर्तव्यं दुर्दशा श्रवणे पित।। ७४ ।।
- अंकलीकर आचार्यकृत प्रायश्चित्त विधान इस प्रकार अनेकानेक इस प्रायश्चित्त विधान नामक ग्रन्थ में आचार्य श्री ने व्यवस्थाएँ देते हुए आचार संहिता को मजबूत बनाया है और अपने आचार्यत्व में चतुर्विध संघ का परिपालन करके निर्दोष मुनि चर्या चरणानुयोग अनुसार करके श्रमया धर्म का पुर्नउत्थान किया और.श्रमण चर्या निर्दोष रीति से पालन करने की विधि बताई जिसका प्रतिफल आज वर्तमान में उपस्थित है ऐसे स्वपरोपकारी आचार्य भगवन्त चरणों में तीन भक्ति सहित तीन बार नमोस्तु करता हूँ और सर्वज्ञ परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि उन्हीं के समान मन बल, वचन बल और काय बल प्राप्त हो जिससे कि मैं जिनेन्द्र परमात्मा के गुण की संपत्ति प्राप्त करने के लिए समाधि पूर्वक मरण करके शाश्वत सत्ता को प्राप्त कर सकूँ।।
बालाचार्य योगीन्द्र सागर "सागर"
प्रायश्चित्त विधान - २५