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टिप्पणी
| ( হেই খালি কানেলে परम पूज्य प्रातः स्मरणीय, विश्व वंद्य, मुनिकुंजर, समाधि सम्राट, आदर्श तपस्वी, अप्रतिम उपसर्ग विजेता, दक्षिण भारत के वयोवृद्ध संत, महामुनि,
आचार्य शिरोमणि श्री आदिसागर जी महाराज अंकलीकर के द्वारा प्रतिपादित ग्रंथ प्रायश्चित्त नाम का है। यह ग्रंथ प्राचीन सर्वज्ञ के द्वारा निःसरित दिव्य ध्वनि से ग्रंथित गणधर देव प्रति गणधर देव तथा पूर्वाचार्यों के अनुसार प्रतिपादित है। इस प्रकार की पद्धति के ग्रंथ स्वतन्त्र तथा अन्य चरणानुयोग के शास्त्रों के अंतर्गत भी पाई जाती है। जब तक परमात्मा स्वरूप परिणत नहीं होता तब तक त्रुटियां दूर नहीं होती है । उनको दूर करने का प्रयास करने के मार्ग को मोक्षमार्ग कहते हैं। अथवा साधक का एक तरीका है। अथवा साधक की एक साधना है। उसी के लिए सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ग्रहण किये जाते हैं। अनादिकालीन वासना या आदत के अनुसार प्रतिक्षण गल्तियों हो रही हैं। अथवा नहीं जानते हुए हो जाती है। अथवा नहीं चाहते हुए भी हो जाती है। उनकी पुनरावृत्ति को रोकने के लिए दंड की आवश्यकता होती है। वह दंड या प्रायश्चित्त कौन देवे ? इसका जिसको ज्ञान होगा अनुभव होगा अथवा जिसने भोगा होगा अथवा जिसने परंपरा से गुरुओं को दंड दूसरों को देते हुए देखा होगा। वहीं सही रूप से और योग्य अपराध के अनुरुप दंड दे सकता है वह दंड भूल अपराध को नष्ट करेगा और भावी अपराध को रोकने में समर्थ होता है अनुभवी प्राचीन आचार्यों को ही स्वयं प्रायश्चित्त जिनेन्द्र देव की साक्षी में लेने का अधिकार है। अन्य सभी को ऐसे ही गुरुओं से प्रायश्चित्त लेना चाहिए जिनको आगम रहस्य का ज्ञान नहीं है। उनसे लिया गया प्रायश्चित्त से अपराध का नाश नहीं होता है। पूर्व में भी छेदपिंड, . छेदशास्त्र, प्रायश्चित्त चूलिका, प्रायश्चित्त ग्रंथ आदि प्रायश्चित्त के स्वतंत्र ग्रंथ है। जो संभवतया उपलब्ध हो जाते हैं। इन ग्रंथों में से कुछ तो प्राकृत में और कुछ गाम्मापासारrxxxr
प्रायश्चित्त विधान - १२५