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________________ पुत्र होगा" यह फल सुनकर दम्पत्ति परम आनन्दित हुये । गर्भ बढ़ने लगा पर माँ का उदर नहीं बढा अपितु कान्ति, रूप, बुद्धि अवश्य बढते गये । षट् कुमारिका और ५६ कुमारी देवियों से सेवित माँ के सुख सौभाग्य का क्या कहना ? निमिश मात्र के समान नव मास बीत गये । लगा कि आज ही देवलोग गर्भ कल्याणक मना कर गये हों । जन्म कल्याणक नववें मास के पूर्ण होने पर चैत्र शुक्ला एकादशी के दिन मा नक्षत्र में और पितृयोग में मतिज्ञान, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों के वारी, दिव्यस्वरूप, सज्जनों के पति तीन लोक के स्वामी उस अहमिन्द्र के जीव ने जन्म लिया। तीनों लोक एक साथ हर्ष में डूब गये । इन्द्र लोग उसी समय प्राये | शनि देवी ने भगवान को ले इन्द्र के कर में दिया और सपरिवार बड़े ठाट-बाट से मेरूपर्वत पर ले जाकर जन्मोत्सव मनाया । उनका सुमतिनाम रखकर वापिस लाये | इनका चिन्ह चकवापक्षी निश्चित किया । तांडव नृत्य कर माता-पिता को बधाई देकर इन्द्र अपनी विभूति सहित लोट गया । 1 1 बालक भगवान, अंगूठे में स्थापित अमृत का पान कर बहने लगे | अभिनन्दन भगवान के बाद नौ लाख करोड सागर बीतने पर इनका अवतार हुआ। इनकी आयु भी इसी में सम्मलित है । आपकी प्रायु ४० लाख पूर्व की थी। शरीर का उत्सेध ( ऊँचाई ) ३०० धनुष प्रमाण थी शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण के समान थी । आकार समचतुरस संस्थान नाम कर्मोदय से सुन्दर था। अतुल शक्ति सहित थे । इनके गोपाङ्ग, रूप लावण्य द्वितीय था, स्वयं बुद्ध वे 李 इन्होंने किसी का शिष्यत्व स्वीकार नहीं किया । प्रनिद्य नेत्रों के विलास से सबका मन हरते थे। मेरे बिना तो इन के शरीर की शोभा ही नहीं होगी मानों इसी घमण्ड से ऊँची उठी नाक उनके मुख कमल की गंध सूंघती थी। दोनों कपोल रक्त वर्ण थे । वक्ष स्थल विशाल था । दंत पंक्ति कुन्द पुष्प की श्री को जीतती थी । अवर अरुण और सुन्दर थे 1 इन्द्र भी अपनी इन्द्राणी सहित जिनके सौन्दर्य को बार बार निरखता हुआ भाश्चर्य चकित हो जाता था उनके रूप सागर का क्या वर्णन किया जाय । उभय कंधे पर्वत समान उन्नत थे। भुजाएँ जानू पर्यन्त लम्बी और सुरड़ थीं। संसार के समस्त श्रेष्ठतम परमाणुओं ने अपना [ ६७ ----------
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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