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________________ । यश बहाने को इनका आश्रय लिया था। नख शिस्त्र को सौन्दर्य अप्रतिम था तभी तो मुक्ति रमा भी इन पर पासक्त हो बैठी थी । यौवनास्था के पूर्व ही कामदेव के समान इनका सौन्दर्य हो गया था। १० लाख पूर्व कुमार काल के व्यतीत हो गये । विवाह... यौवन में प्रविष्ट कुमार को देखकर पिता ने अनेक सुन्दर उत्तम वंशोत्पन्न राजकन्यानों के साथ प्रापका विवाह कर दिया । वे स्वभाव से प्रणवति थे। सरल, मद्रल, कोमल स्वभाव धारी थे। इन्द्र द्वारा प्रेषित देवों द्वारा लाये भोगो-पभोग पदार्थों का उपभोग करते थे। उन्हें इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग स्वप्न में भी नहीं था। सतत धर्म ध्यान में लीन रहते थे। वय के साथ होड़ लगाये गुण भी वृद्धिगत हो रहे थे। सर्व ओर से उनका पुण्योदय था । पिता मे भी हर्षित हो उन्हें राज्यभार अपित कर दिया । उभय भोगों को पाकर भी आप में तनिक भी ग्रहमान नहीं पाया सर्वसम्पदामों से भरपूर उनकी देव, दानव, विद्याधर, मनुष्य सब ही सेवा में तत्पर थे ! मनध्य लोक और देवलोक की विभूति पाकर, अनेक समान अवस्था की रूपराशि स्त्रियों के साथ नाना प्रकार क्रीडाएँ करते हुए भी वे धर्म से विमुख नहीं थे अपितु माध्यस्थभाव से भोगों का सेवन करते हए सदा धर्मध्यान में विशेष काल यापन करते थे। प्रभूत भोगों में एवं राज्यकार्य संचालन में उनका उनतीस लाख पूर्व एवं बारह पूर्वाङ्ग व्यतीत हो गये। धर्मध्यान लीन प्रभ एक दिन अकस्मात अपने जीवन क्षणों को गणना कर भोगों से विरक्त हुए । निकट भव्य जीव का ऐसा ही नियोग होता है । वैराग्य चिन्तन पोह; यह क्या ? इतना दीर्घकाल, इन भोगों में ? क्या ये भोग नित्य हैं ? यह जीवन स्थायी है क्या? ये सुन्दर कामिनियाँ क्या इसी प्रकार योवन का रस दे सकती हैं ? क्या प्रायु का अन्त नहीं होगा? मांस को इलो के लिए जीवन देने वाली मछली के समान यह राज्य भोग क्रिया नहीं क्या ? क्या मेरे जैसे त्रिज्ञान धारी को भोगों में फंसा रहना उचित है ? नहीं ! नहीं ! ये सब नाशवान हैं, दुख रूप हैं, दुख
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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