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________________ " ............... पर चार अंगुल अधर आकाश में श्री प्रभु को विराजमान कर १००८ . नामों से इन्द्र ने स्तुति की। नाना द्रव्यों से प्रष्ट प्रकारी पूजा की। सुगंधित पुष्प चढ़ाये । तदनुसार राजा सुरेन्द्र दत्तादि ने भी रत्नादि से अष्ट द्रव्यों से पूजा कर केवलजान महोत्सव मनाया 1 लमवशरण बसव चारों प्रकार के देव-देवियों से घिरे हुए प्रभु ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे छोटे-छोटे पर्वतों से वेष्ठित सुमेरु पर्वत । १२ सभाएँ थीं। प्रष्ट प्रातिहार्य और दश अतिशयों से युक्त थे। चारुषेण प्रथम गणधर को लेकर १०५ गणघर थे। समवशरण का विस्तार ११ योजन अर्थात ४४ को प्रमाण था। उनके २१५० पूर्वधारी मुनि थे, १२६३०० उपाध्याय परमेष्ठी-शिक्षक या पाठक थे, ६६०० अदधिज्ञानी, १५००० केवली, १६८०० विक्रिद्धधारी थे, १२१५० विपूलमती मनः पयंय ज्ञानी थे, समस्त प्रतिवादियों को जीतने वाले बारह हजार (१२०००) वादियों की संख्या थी । इस प्रकार समस्त २००१०५ दो लाख एक सौ पांच मुनिराज थे । धर्मार्या (धर्म श्री) मुख्य-गणिनो को लेकर ३३०००० (तीन लाख तीस हजार) आयिकाएँ थीं, सत्यवीर्य मुख्य श्रोता को लेकर ३००००० (तीन लाख) श्रावक और ५०००० (पच लक्ष) श्राविकाएँ थीं । असंख्यात देव-देवियों और खंख्याल तिबंध थे। गंधकुटी के मध्य प्रभु के प्राज-बाज त्रिमुख यक्ष और प्रज्ञप्ति यक्षी थी। दोनों प्रोर ३२. ३२ यक्ष चमर बोरते थे । चौंतोस अतिशय और ८ प्रातिहार्यो से शोभित थे । दिव्य-वनि रूपो चन्द्रिका से सबको प्रसन्न करते थे । नमस्कार करने वाले भव्य-कमलों को सूर्य के समान प्रफुल्ल करने वाले थे । कलंक रहित १८ दोषों से सर्वथा रहित थे । मुनिगण रूपी ताराओं से वेष्टित निष्कलंक चन्द्रमा थे । काम शत्रु के हन्ता, सकल झान धारी थे। पुरणं चारित्र के धारी तीनलोक से सेवित्त थे। वाह्याभ्यंतर दोनों अंधकारों का नाश कर वाह्याभ्यंतर उभय लक्ष्मी के धारक थे । मेधों के समान धर्म वर्षा कर समस्त प्राणियों का हित करने वाले थे । इन्द्र द्वारा प्राथित प्रभु ने समस्त आर्य खण्ड में विहार कर भव्य रूपी घातकों को अपनी दिव्य-वनी द्वारा धर्मामृत वर्षण कर तृप्त किया । योग निरोध.. १० लाख करोड़ सागर ४ पूर्वाङ्ग वर्ष पर्यन्त प्रापने धर्म वर्षा कर जगती का उद्धार किया (तीर्थ प्रवर्तन काल रहा ) । प्रायु कर्म का ८२ ]
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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