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भांति उड़ गया, तो भी उनका दाह संस्कार अवश्य होना चाहिए, यह सोचकर इन्द्र ने नियोग कर पुण्यार्जन का निश्चय किया | अग्निकुमार जाति के देवों के मुकुटों से उत्पन्न अग्नि द्वारा दाह संस्कार किया । अनन्तर बृहद् निर्वाण पूजा कर रत्नमयी दीप जलाये, निर्वाण लाडू चढ़ाया एवं हर्षातिरेक से नाना प्रकार के नृत्यादि कर स्वर्ग को गये । उसी प्रकार मर्त्यलोकवासी जन समूह ने भी दीपार्चना, मोदकाचंनादि कर प्रभु की भस्म को मस्तक पर चढ़ाया । अष्ट द्रव्य से निर्वारण पूजा कर महोत्सव मनाया । भगवान कायोत्सर्ग से मुक्ति सिधारे 1.
आपके संघस्थ २६०० साधु सौधर्म से ऊर्ध्वं ग्रैवेयक पर्यन्त विमानों में उत्पन्न हुए अनुत्तर विमानों में २०००० ऋषीश्वर पधारे। आपके साथ १००० मुनि मोक्ष पधारे । इनके काल में ८४ अनुबद्ध केवली हुए । अन्य प्राचार्यों के अनुसार १०० अनुबद्ध केवली हुए । ५० लाख करोड़ सागर और १ पुत्र प्रमारण कालं श्रापका तीर्थ प्रवर्तन समय रहा । आपके काल में सगर चक्रवर्ती, वलि नामक द्वितीय रुद्र और प्रजापति कामदेव महापुरुष हुए। इनका वैभवादि पूर्व के समान ही था। इस प्रकार द्वितीय तीर्थकर श्री अजितनाथ ने तीर्थङ्करत्व गोत्र का उत्तम फल मुक्ति प्राप्त किया। इस चरित्र के पाठक अध्येता को भी उसी का साधक पुण्य संचय होता है || श्री अजित प्रभु की जय ॥
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हाथी