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मान चुका हो तो भला उनकी गुणगरिमा का क्या ठिकाना ? अजित . नाम सार्थक था, प्रथम देशना सहेतुक बन (अयोध्या के निकट) में देकर इन्द्र की प्रार्थना के बाद समस्त प्रार्यखण्ड में विहार कर उभय धर्म-यति धर्म और श्रावक धर्म का उपदेश किया। १२ वर्ष कम १ पूर्वांग पर्यन्त सर्वज्ञता प्राप्त कर धर्म वर्षण किया। अन्त में १ माह
आयु का प्रवशिष्ट रहने पर प्राप देशना का परित्याग कर श्री सम्मेद शिखर महागिरिराज पर पधारे। घवलदत्त कूट पर योगनिरोष कर ध्यानस्थ हो शेष अघालिया कर्मी की क्षार उडाने में दत्तावधान हुए।
समुखात--
मूल शरीर का त्याग न करके प्रात्म-प्रदेशों का बाहर निकलना समुद्धात कहलाता है । जिन केवलियों की प्रायु कर्म की स्थिति से नाम, गोत्र और वेदनीय की स्थिति अधिक होती है वे केवली उन कमों की स्थिति को आयु के समान करने के लिए समुद्धात करते हैं। इसे केवली समुद्धात कहते हैं । अस्तु भगवान ने भी दण्ड, प्रतर, कपाट और लोक पूरण रूप समुखात कर चारों कर्मों को समान किया । इसमें समय मात्र काल लगता है क्योंकि जिस क्रम से प्रात्म-प्रदेश निकलते हैं उसी प्रकार पुनः संवृत हो शरीर प्रमाण हो जाते हैं । इस समय प्रभु की असंख्यात गुणी निर्जरा हो रही थी। उन्होंने सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती नामक तृतीय शुक्ल ध्यान द्वारा सम्पूर्ण योग निरुद्ध किये और असंख्यात गुणी पास्म-विशुद्धि प्रति समय बढ़ायी।
निर्वाण कल्याणक
कर्म का राज्य सर्वथा निष्पक्ष होता है । भगवान के मुक्ति पाने के पहले ही उनके ७०१०० मुनिराज सर्वज्ञता प्राप्त कर सिद्ध परमेष्ठी हो गये । श्री अजितनाथ स्वामी ने भी चैत्र शुक्ला पंचमी के दिन प्रातकाल रोहणी नक्षत्र में "व्युपरतक्रियानिवृत्ति" चौथे शुक्ल ध्यान के बल से शेष ४ अघातिया कर्मों का समूल नाश किया और "अ इ उ ऋ ल" इन पाँच लध्वक्षरों के उच्चारण में जो समय लगे उतने ही समय मात्र में श्री सिद्ध क्षेत्र में सिद्ध शिला पर जा विराजे । उसी क्षण सुरासुर मोक्ष-कल्याणक महोत्सव मनाने अपने-अपने वैभव के साथ आये। भगवान की शुद्वात्मा मुक्ति को प्राप्त हो गयी, शरीर भी कपूर की