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२- १००८ श्री अजितनाथ जी
जिनके वचनामृत से पावन होता भव्य हृदय । अजित जिनेश्वर के चरणों में होवे मेरा शत्-शत् बन्दन ॥
"मनोरेव कारणं बंत्रमोक्षयोः " प्राणी मनुष्य मनोभावों के अनुसार शुभाशुभ कर्मों से लिप्त और मुक्त होता है । अपने-अपने प्रच्छे-बुरे भावानुसार योग्य-अयोग्य आचरण कर पुण्य और पाप का अर्जन व विनाश करता है । सीता नदी के दक्षिण तट पर स्थित विशाल वत्सदेश का अधिपति राजा विमल वाहन था। वह राज्योचित गुण- गरिमा से सम्पन्न श्रीर न्याय एवं धर्म से प्रजा का सन्तान के समान पालन कर क्षमा एवं करुणा भाव से पुण्यार्जन करता था । पुण्य से प्राप्त धन-वैभव में भी उसे तनिक भी प्राशक्ति नहीं थी । मुक्त हस्त से दान एवं पूजा में निरन्तर निरत रहता था। वह जिनधर्म पर अकाट्य श्रद्धालु था । "बुद्धि' कर्मानुसारिणी के अनुसार संज्वलन कषाय के उदय में राजा संसार शरीर भोगों की असारता का विश्वार करने लगा ।
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