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बाहों में भी लगाया और हम भी ऐसे (भगवान समान) हो" इस प्रकार भावना की । इन्द्र-इन्द्राणी, देव देवियाँ सबने बड़ी भक्ति से हर्षित हो आनन्द नाटक किया ।
महाराज भरत ने भी परमोत्सव मनाया परन्तु साथ ही महाशोकाभिभूत हो, इष्टवियोगज प्रार्तध्यान में फंस गया । वह बालकवत् विलापादि चेष्टा करने लगा । उस समय श्री वृषभसेन गणधर महाराज ने उसे धर्मोपदेश एवं सबके पूर्वभव सुनाकर सन्तुष्ट किया वे बोले हे भरत ! जो मरण ग्रामामी जन्म रूपी भयंकर दुःख देने वाला है वह यदि होना है तो रोना ठीक है परन्तु जो वियोग (मरसा) पुनः जन्म न होने दे उससे क्यों रोना । अरे तू इन्द्र से भी पहले मोक्ष जायेगा । फिर शोक कैसा ? हे भव्योत्तम तु कृतकृत्य होने वाला वरम शरीरी है प्रसन्न भव्य है इसलिए हर्ष के स्थान में तेरा शोक शोभित नहीं होता । इस प्रकार के वचन रूपी अमृत से अभिसिंचित राजा भरत सम्बुद्ध हो अपने नगर में प्रविष्ट हुए।
भरत की मुक्ति
एक दिन भरत ने दर्पण में अपना सफेद केश देखा, और तुरन्त जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर अन्तर्मुहूत में केवली भगवान हो गये ।
भगवान के १० मय
१. जयवर्मा राजा ।
२. राजा महाबल । ३. ललितांगदेव |
४. राजा वाजंघ । ५. उत्तम भोगभूमि में यार्य ।
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चिह्न
६. श्रीधर नाम का देव । ७. सुविधि राजा ।
५. इन्द्र अच्युत स्वर्ग में । ९. राजा वज्रनाभि चक्रवर्ती | १०. ग्रहमिन्द्र सर्वार्थसिद्धि में ।
वहाँ से ऋषभ देव हो मुक्तिधाम सिधारे ।
बैल (वृषभ )