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रूप परिमन होता रहता है । यह शुद्ध परमाणु रूप होकर भी पुनः अशुद्ध-स्कंध रूप हो जाता है, परन्तु जीव की अशुद्धि का कारण पाठ कर्मों का संयोग है । जीव स्वयं अपने द्वारा इस सम्बन्ध को आमूल छेदकर पूर्ण शुद्ध हो सकता है। एक बार शुद्ध होने पर जीव पुन: कभी भी अशुद्ध नहीं होता । जीव की इस अवस्था का नाम ही मोक्ष है।
प्रत्येक वस्तु उत्पाद, व्यय और धोव्य स्वभाव लिए है। ये तोनों एक ही समय में रहते हैं। जहां सत् हैं वहाँ ये तीनों हैं ही । गुरण-पर्यायों का समुदाय ही द्रव्य है. ये गुरण पर्याय भी द्रव्य से कोई अलग पदार्थ नहीं हैं।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र इन तीनों का एकमेक रूप हो आत्मा है । इनको रत्नत्रय कहते हैं । रत्नत्रय ही आत्मा है और आत्मा ही रत्नत्रय है । इस स्वरूप को पाना ही मुक्ति है, जिसे प्रत्येक भव्य जीव स्वपुरुषार्थ से व्यक्त कर मेरे जैसा हो शाश्वत, अविनाशी मुक्ति घाम को पा लेता है । इसके पाने का पुरुषार्थ दो प्रकार है. यति धर्म और गृहस्थ धर्म । प्रथम गृहस्थ धर्म पालन कर यति धर्म स्वीकार कर कर्म काट अमर बन सकता है।
गएषर
जिस प्रकार चाँद के बिना चंद्रिका, सीप के बिना मोती, मेधाभान में वर्षा, धर्म बिना सुख नहीं होता, उसी प्रकार गणधर के बिना अहन्त परमेष्ठी की दिव्यध्वनि भी नहीं खिरती । प्रस्तु, भरत राजा का छोटा भाई जो पुरिमताल का राजा था, जिसका नाम वृषभसेन था, भगवान की वाणी सुनकर संसार, शरीर भोगों से विरक्त हो, दीक्षा धारण की । उसी क्षण चौथा मनः पर्यय ज्ञान प्रकट हुमा एवं सप्त ऋद्धियाँ प्राप्त हई । ये प्रथम गणघर बनें । यहाँ प्रश्न हो सकता है कि गणघर हाए बिना भगवान की वाणी नहीं खिरती फिर उपदेश कहाँ से सूना ? ठीक है, परन्तु वृषभदेव स्वामी की दिव्यध्वनि चक्रवर्ती भरत के निमित्त से खिरी थी । राजा सोमप्रभ श्रेयान् आदि ८४ मणघर हुए। प्रायिका ब्राह्मी सुन्दरी----
पुरुष के समान नारी भी यथाशक्ति प्रात्मकल्याण करने में स्वतन्त्र और योग्य है । अत: भगवान के अनुग्रह से उन्हीं की पुत्री ब्राह्मी ने ५२ ]