SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ : नाना प्रकार से स्तुति, बन्दना कर अपने-अपने कर्म बन्धन को शिथिल बनाया । अनन्तर अपने-अपने कोठे में यथायोग्य स्थान पर बैठ गये। .. बारह सभाएं.. श्री प्रभु स्वभाव से पूर्वाभिमुख: विराजते हैं, परन्तु उनका दिव्य मुख चारों ओर स्पष्ट दिखाई देता है। इससे प्रत्येक दिमा में बैठे भव्यगरण समझते हैं कि भगवान हमारी ओर मुख कर विराजे हैं । समवसरण की रचना गोलाकार होती है । सभाएँ भी गोलाकार रचित होती हैं। प्रदक्षिणा रूप से १. प्रथम कोठे में गणधर आदि मुनिराज विराजते हैं । २. दूसरे में कल्पवासिनी देवियाँ, ३. तीसरे में प्रायिकाएँ एवं श्राविकाएँ, ४. चौथे मैं ज्योतिष्क देवांगनाएँ: ५. पाँचवें कोठे में व्यंतरी देवांगनाएँ, ६. छठवें में भवनवासिनी देवियां, ७, सालवें में भवनवासी देव, ८, पाठ में व्यन्तर देव, ६. नवें में ज्योतिष्क देव, १०, दसवें में कल्पवासी देव, ११. ग्यारहवें में चक्रवर्ती प्रादि राजा महाराजा एवं साधारण मनुष्य और १२. बारहवें में तिर्यञ्च समुदाय बैठता है । इस प्रकार भगवान के चारों ओर श्रोतागण बैठते हैं । मध्यस्थ गंधकुटी में केवलज्ञान संक्ष्मी से विभूषित भगवान शोभित हो भव्यंजनों के प्रशानान्धकार को हरने वाला पुनीत घमीपदेश देते हैं। भरत चकवतों द्वारा केवलशाम पूजा... संसार के समस्त सारभूत भोगों का निर्बाध रूप से सेवन करते हुए भरत चक्रवर्ती को काल के बीतने का भान भी नहीं था । वह शम दम में ऋषियों के समान था । एक दिन धर्म का फल रूप भगवान के केवलज्ञानोत्पत्ति का समाचार, अर्थ पुरुषार्थ का फल रूप प्रायुधशाला में चक्रोल्पत्ति और काम पुरुषार्थ का फल पुत्रोत्पत्ति का समाचार एक साथ ज्ञात हुए । वह विवेकशील विचार कर प्रथम धर्म का फल पुज्य है, इसलिए भगवान को केवलज्ञान पूजा महोत्सव सम्पन्न करना चाहिए । धर्म से अर्थ और अर्थ से काम होता है। अतः आनन्दभेरी गूंज उठी। सर्व प्रथम चक्री ने समाचार वाहक बनमाली को अपने वस्त्रालंकार उतार कर वे दिये । पुनः सिंहासन से ७ पैड चलकर भगवान को परोक्ष नमस्कार किया । समस्त प्रजा को समवसरण में चलने की प्राशा दी ।
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy