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तीन छन त्रैलोक्याधिपतित्व का द्योतिल कर रहे थे । ४.--भगवान के दोनों ओर ३२-३२ यक्ष खड़े ६४ चमर दुलाते थे। ५-याकाश में देव दुदमि बजा रहे थे । ६.--भगवान की शरीर कान्ति से बना प्रभामण्डल सूर्य की कान्ति को तिरस्कृत करता था । इसमें दर्शक अपने-अपने ७ भवों को देखते थे। ७–मेघ गर्जना के समान भगवान की दिव्य-ध्यान हो रही थी तथा ८-आकाश में देवों द्वारा जयघोष हो रहा था। ये ही पाठ प्राविहार्य कहे जाते हैं । विम्य-व्यनि
सर्वज-तीर्थङ्कर प्रभु की वाणी को "दिव्य-ध्वनि" कहते हैं । यह निरक्षरात्मक एवं एक रूप होती है, किन्तु वर्षाजल जिस प्रकार एक होकर भी भूमि, वृक्ष, सीपादि के संयोग से अनेक रूप हो जाता है, उसी प्रकार भगवान की दारणी भी श्रोताओं के कणों में पहुँच कर उन-उन की भाषा के रूप में परिणमित हो जाती है . गणधर के रहने पर ही भगवान की दिव्यवाणी प्रकट होती है । समवसरण में इन्द्र इन्द्राणी----
सुरों से परिवेष्टित इन्द्र प्रौर अप्सरामों एवं देवांगनानों से परिमण्डिस इन्द्राणी ने दूर ही से भगवान को देखते ही बड़ी भक्ति से नमस्कार किया। दोनों ने शुद्ध भावों से जल, चन्दन, अखण्ड दिव्य अक्षत, पारिजाल, मोगरादि अनेक सुगंधित पुष्पमालाएँ, घृतादि से निमित नाना प्रकार के नैवेद्य, रलमय ज्योति युत दीप, सुगंधित दमाग धूप और प्रान, जाम्बू, कदली, पिस्ता, बादाम आदि फलों से श्री जिनदेव की सातिशय पूजा-अर्चना की। इन्द्राणी ने अनेक भाँति के रत्न चों से भगवान के सामने उत्तम प्रति मनोहर मण्डल पुरा था। सुवर्ण थाल में दीपकों से वेष्टित अमृत पिण्ड से भगवान की पूजा की। यद्यपि भगवान वीतराग हैं, उन्हें इस पूजा के करने और नहीं करने से कोई प्रयोजन नहीं, परन्तु तो भी भक्त अपनी श्रद्धा भक्ति और परिणाम शुद्धि के अनुसार सातिशय पुण्यार्जन करता ही हैं, यह महान प्राश्चर्य है।
भवनवासियों के ४०, व्यन्तरों के ३२. कल्पवासियों के २४, ज्योतिषियों के चन्द्र-सूर्य २, मनुष्यों का १ चक्रवर्ती और तिर्यञ्चों का १ सिंह इस प्रकार ये १०० इन्द्र हैं। सभी ने सपरिवार भगवान की