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फल-फूल स्वयं लेकर नहीं खा सकते । अप्रासुक जल भी नहीं पी सकते । देवता के वचन सुनकर वे डर गये और शरीर रक्षार्थ भिखारी की भांति छाल, प, चिथड़े प्रादि जो मिला उसे ही लपेट कर वेष परिवर्तन किया, तथा फल-फूल, कन्द खाने लगे सरोवरों का जल पीने लगे।
जटाये बढ़ाली । डण्डे रखने लगे । कान फाड़ लिए। रुद्र मालाएँ पहन ली । तिलक-छाने लगा लिए । स्वेच्छानुसार परिव्राजक, सन्यासी, एक दण्डी, दो दण्डो प्रादि पाखण्डी साधु हो गये। ये फल, पूष्प और जल से भगवान के सरगा कमलो की पूजा करने लगे। भगवान का पोला मरीची कूमार जो भरत का पुत्र था वह भी सन्यासी हो गया उसने योग, नैयायिक और सांख्य शास्त्रों का प्रचार किया। पाखण्डियों का नेता बना । फलतः ३६३ प्रकार के मिथ्यात्व यहीं से प्रारम्भ हुए। भगवान का सपोतियायः----
भगवान ने पाँच महावत...-१-अहिंसा महावत, २-सत्य महाव्रत, ३-प्रचौर्य महाबत, ४-ब्रह्मचर्य महाव्रत और ५-अपरिग्रह महानत धारण किये। पांच समितियाँ -- १-ईयां, २-भाषा, ३-एपणा, ४-प्रादान निक्षेपण और ५-उत्सर्ग का पालन करते थे। पञ्चेन्द्रिय और मन को सर्वथा जीत लिया था । तीन गुप्ति ही उनका किला था। पहावश्यक पूर्वक ही उनका परिणामन था। अनशनादि ६ वाद्य और प्रायश्चित आदि ६ अन्तरङ्ग तपों से देदीप्यमान थे। सात शेष गुणों के पालन में सावधान थे। इस प्रकार कठोर तप करते छ: माह पूर्ण हो गये । भगवान निर्भीक सिंहवत, मेरुवत् अचल थे, उनके पात्मतेज से सिंहादि क्रूर प्राणी भो शान्त हो गये थे। ६ माह उपवास कर भी प्रभ की शरीर कान्ति ज्यों की त्यों थी, उनका नामकर्म गजब का था। अथवा कोई दिक्ष्य अतिशय था। शिरीष कुसूम से भी अधिक कोमल भगवान इस समय तप करने में वछ से भी अधिक कठोर हो गये थे। हिरण, सिंह, श्यान, गाय, चमरी गायें, नेवला, सर्प आदि जाति विरोधी मृगमरण वैर त्याग निवास करते थे । पलक मारते ही भगवान का छ: महीने का प्रतिमा योग समाप्त हुआ। विनमि और नमी की याचना--
भोगी और योगी का युद्ध चला । योगीराज वृषभ स्वामी मेरुवत् अचल ध्यानारूढ़ थे । अपने में ही उनका संसार सिमट चुका था। उन्हें
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