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साधना करते हैं । महामौनी, महाध्यानी, धीर-वीर प्रभु ने दीक्षा धारण कर ६ महीनों का उपवास लिया और सकल चित्तवृत्तियों, विकल्प जालों को छोड़, मन इन्द्रियों का निरोध कर एकाग्र ध्यान में कायोत्सर्ग से खड़े हो गये । दोनों पैरों के बीच चार अंगुल का अंतराल था । दोनों भुजायें नीचे लटक रहीं थीं । नासाग्र दृष्टि, सर्व अंग निश्चल थे । मन्दमन्द स्वांस की सुगंध से मंडराते मधुकर ऐसे जान पड़ रहे थे, मानों प्रशुभ लेश्याएँ निराश्रय हो बाहर भटक रही हों । उत्तरोत्तर शुभ भाव बढ़ रहे थे, अशुभ कट रहे थे 1 चारों जानों का दीप जल रहा था, दोष रूपी चोर यत्र-तत्र भागने की चेष्टा में लग रहे थे। प्रति समय अनन्त गुणी कर्मों की निर्जरा हो रही थी। आत्मस्थ प्रभु स्वसंवेदनजन्य प्रानन्दामृत का पान करने लगे । जटायें बढ़ गई किन्तु कर्म जटाएँ छिन्न-भिन्न हो रही थीं । एक ही स्थान पर अचल अकम्प अडील खड़े थे भगवान । सह वीक्षित राजागरण.--..
दो-तीन महीनों में ही कच्छादि चार हजार राजाओं का धैर्य छूट गया । भगवान का मार्ग इतना कठिन होगा, यह उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। वे क्या जानते थे कि हमें खाने-पीने को भी नहीं देंगे। भगवान तो परम दयालु थे, पर अब जाने क्या सोचकर ये मौन लिए खड़े हैं 1 हम तो भूख-प्यास से मरे जा रहे हैं। क्या करें, लौट कर जायेगे तो राजा भरत दण्ड देंगे, रहते हैं तो भूख-प्यास से मरे जा रहे हैं । इधर गिरै खाई उधर गिरें कंपा।" बुरी दशा है और कुछ नहीं तो न सही पर भोजन मात्र ही करा देते तो भी हम रह सकते थे पर ये तो न खाते हैं न खिलाने का ही संकेत करते हैं । ये तो समर्थ हैं तो क्या हम असमर्थ इनके साथ मरे ? ये क्यों हमें तप में लगाये हैं ? चलो अब हम भख-प्यास नहीं सह सकते ? अरे वन में बहुत से फल-फूल हैं इन्हें खाकर जीवन निर्वाह क्यों न करें ? नाना तकों में झूमने वाले कितने ही असक्त भगवान के चरणों से लिपट गये, कितने ही प्रदक्षिणा करने लगे, कितने ही जाने की प्राजा मांगने लगे, किन्तु उत्तर कौन देता ? हताश हो बन में बन्दरों की भांति फल-भरित वृक्षों पर जा चढ़े और फल तोड़कर खाने का प्रयत्न करने लगे। परन्तु अचानक जिनशासन प्रिय वनदेव प्रकट हो उन्हें ताड़ना देते हुए बोला, हे भव्यों ! यह परम भरहत लिग सर्वोत्कृष्ट है. पूज्य और पवित्र है इस वेष में प्राप