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________________ और मुझे कार्य बहुत करना है। इन भोले, पथ भ्रान्त, स्वार्थी, धर्म . विरोधी एकान्त वादियों को सत्तष दिखाना है। पाप व्यर्थ मोहमें नहीं फसाइये ।" सिद्धार्थ महाराज सुनते ही तिलमिला उठे। बड़े प्रेम और भाग्रह से रोकने का प्रयत्न किया परन्तु बर्द्धमान तनिक भी विचलित नहीं हए। उन्होंने स्पष्ट कर दिया, मैं कदाऽपि विवाह नहीं करूंगा और न राज्य ही भोगूगा । निश्चय मैं अविनाशी राज्य प्राप्त करूगा । वर्तमान का राय मवाद सुनकर माता प्रियंकारिणी का हृदय विषपणा हो गया । अखिों के सामने अंधेरा छा गया । किन्तु वीर प्रभु ने मधुर वाणी से उनका अज्ञानतम दूर किया । प्रबुद्ध मां ने आशीर्वाद दिया, " हे. देव, वास्तव में तुम मनुष्य नहीं मनुष्योत्तर हो, तुम्हारे जैसे पुत्र को पाकर मैं धन्य हो गई । प्राप आराध्य देव बनो । यही मेरी प्राशा है।" इस प्रकार महावीर परिवार मोह से मुक्त हो मुक्ति श्री को पाने के लिए कटिबद्ध हुए । कुमार वर्द्धमान को वैराग्य होते ही लौकान्तिक देव पाये है. इन्हें जातिस्मरण से वैराग्य हुमा । सारस्वतादि ने वैराग्य पुष्टि करते हुए स्तवन किया और अपने स्थान पर चले गये। बौक्षा कल्याणक असंख्य देव, देवियों, इन्द्र, इन्द्राशियों के जय-जय नाद से प्राकाशभू गूंज उठे, कुण्डलपुर में पाये। भगवान का दीक्षाभिषेक किया। अनेको सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषा धारण कराये। पूनः देव निमित 'चन्द्रप्रभा' नामकी पालकी में प्रारूढ़ हुए। प्रथम पालकी मनुष्यों ने उठायी, फिर विद्याधर राजानों ने, तदनन्तर देव लोग ले गये । पण्ड वन में पहुंचे । वहीं तीन दिन (तेला) का उपवास धारण कर अगहन वदी दशमी, हस्ता नक्षत्र में बाह्यभ्यन्तर परिग्रह का त्याग किया । "नम:सिद्धेभ्यः" कह कर स्वयं निग्रन्थ-जिन दीक्षा धारण कर प्रात्मध्यान में निमग्न हो गये। प्रात्मविशद्धि और संयम ज्योति से उसी समय उन्हें मनः पर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया । देवेन्द्र और देव-देवियों ने परमोत्तम पूंजादि सम्पन्न की। इस प्रकार दीक्षा कल्याणक महोत्सव सम्पन्न कर सब अपने-अपने स्थान में गये। । २५५
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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