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कर उन्हें प्राक आहार दिया और पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये । पुनः प्रभुः वन विहार कर गये । इस प्रकार चार छ, दस आदि उपवासों के साथ मीन से ध्यान करते रहे । श्रात्मान्वेषण में संलग्न हुए ।
खुपस्थ काल
तपोलीन श्रेष्ठ सुनिश्वर के अधस्य काल के कुछ कम ४ माह पूर्ण हुए । तब वे ७ दिन का उपवास ले उसी दीक्षा वन में आम्रवृक्ष के नीचे या विराजे। वे ध्यान में मेरुवत अचल हो गये । आत्मस्वरूप ही उनके सामने था ।
पसर्ग निवारण
उसी समय तापसी का जीव संवर ज्योतिषी देव वहाँ से निकला । उसका विमान अचानक रुक गया। इधर-उधर कारण खोजने पर परम दिगम्बर मुनि पुंगव पार्श्वनाथ पर दृष्टि पड़ी। पूर्व बद्ध वेर का स्मरण कर श्राग-बबूला हो गया । घोर उपसर्ग करना प्रारंभ किया । प्रथम पोर शब्द किये । पुन: लगातार ७ दिन तक वीर भयंकर जलवृष्टि, उपल ( ओला ) वृष्टि, अशनि (बिजली) पात आदि किया । परन्तु वे सुमेरु सदृश 'अचल रहे । सर्प सर्पिणी जो घरणेन्द्र यथावती हुए थे, उन्होंने अपने अवधिज्ञान से उपसर्ग जानकर प्रत्युपकार की भावना से वहाँ याये। भगवान का घोर उपसर्ग देखकर स्वंभित और चकित हुए। उसी समय पद्मावती ने करण फैलाया और प्रभु को अधर उठाया धरन्द्र ने छत्रवत अपना वज्रमयो फरणं तान दिया । उपसर्ग दूर होते ही ध्यान की एकाग्रता से प्रभु क्षपक श्रेणी पर श्रारूढ हुए । बिजली के शॉट से भी अविक तीक्ष्ण ध्यान कुठार से खटाखट घातिया कर्मों की जंजीरें कट गई ।
केवलज्ञान कल्या रंगक
संवर लज्जा से अभिभूत हुआ । क्षमा याचना की । चरणों में पड़ गया । शुद्ध सम्यक्त्व धारण किया। उसी समय चैत्र कृष्णा चतुर्थी के दिन विशाखा नक्षत्र में पार्श्वनाथ अर्हन्त, यथार्थ तीर्थङ्कर भगवान सर्वज्ञ परमेष्ठी बन गये । प्रातःकाल केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । देवेन्द्र, देवों ने आकर ज्ञान कल्यासाक पूजा की । कुबेर ने समवशरण रचना की ।
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