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खिलौना देना, उँगली पकड़ाना प्रादि कार्य करातों । भगवान बालक्रीड़ा,. घुटरम चलना, मुकुलाना, न छून चलना यादि क्रियाओं से माता-पिता को तो हर्षित करते ही थे समस्त जनों को भी चन्द्रमा के समान प्राङ्गादित करते थे। स्वर्ग से पाया दिव्य भोजन ही प्रभु करते थे । प्रतिदिन इन्द्र नवोन-नवीन कपड़े एवं गहने लाकर पहनाता। उसे अवधिज्ञान नेत्र से प्रतिदिन बढ़ते बालप्रभु की वृद्धि ज्ञात होती थी। इसीलिए उनके माप से निर्मित नित नये वस्त्राभूषण लाता था। बालचन्द्रबत प्रभु बढ़ने लगे 1 भगवान का मनोहर शरीर, मधुरवाणी, सौम्य चितवन, मन्द हास्य, संसार को संतुष्ट करता ।
भगवान की विद्या--- _वे स्वयं बुद्ध थे । जन्म से ही मति, श्रुत, अवधि तीन ज्ञान के धारी थे । जन्मजात शरीर की मांति ये विद्याएँ भी स्वयमेव वृद्धिंगत हो गई। उन्हें किसी स्कुल, यूनिसिटी या पाश्रम आदि में विद्याध्ययन को प्रावध्यकता नहीं हुयी । स्वभाव से समस्त विद्याओं के ईश्वर थे । जन्मान्तर के दृढ़ संस्कारों से बहुत-सी स्मृतियां अनायास स्वयं जाग्रत हो गई। तभी तो विदेह क्षेत्र के समान यहाँ भी कर्मभूमि-सष्टि के कर्ता बने । कला, विज्ञान, शिल्प. लिपि, व्याकरण, साहित्यादि समस्त ५०० महाविद्याएँ और ७०० क्षुल्लक विधानों के अधिष्ठाता हए । वे सरस्वती के अवतार वाचस्पति थे । अत: जगद्गुरु हो गये । प्रागमज्ञान होने से वे स्वभाव से शान्त थे । मन्द कषायी थे। ज्ञान के साथ कषाय मन्दता अनिवार्य है । इस प्रकार माता-पिता, कुटुम्ब एवं संसार को तुष्ट करते हुए बढ़ने लगे।
भगवान का जीवनकाल (प्राथु .....
प्रभ की प्राय ८४ लाख पूर्व की थी। कदलीघात से रहित और निर्वाध सुख से सहित थी । वे दीर्घायु के साथ दीर्घदर्शी और दीर्घभुज थे । संसार मारके गुणों का अनुकरण करता था । "काव्य शास्त्र विश्नोदेन कालो याति धीमताम" के अनुसार ग्राप छन्द शास्त्र, अलकार शास्त्र, मष्टोदिष्ट विचार, व्याकरण शास्त्र, विज्ञान शास्त्र आदि के मनन, चिन्तन, पठन, पाठन, में ही आपका सुखद जीवन अंजुलिंगत जल की जलबिन्दुवत् व्यतीत होने लगा | कभी गान कला, कभी नृत्य