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भारतPapermane
सभी को दृष्टि भावी पुत्र रत्न का मुखावलोकन करने को प्रातुर हो रहीं थीं। माँ का प्रानन्द तो असीम था। उसे एक-एक पल भारी हो रहा था अपने लाल का मुखचन्द्र निहारने के लिए । जिस प्रकार चातक स्वाति. नक्षत्र की मेघ बिन्दू की प्रतीक्षा करता है, मयुर मेघ गर्जन की ओर कान लगाये रहता है, कोकिला बसन्त का आह्वान करने को प्रातुर रहती है, साधुजन नि:शेष कर्म निर्जरा की प्रतीक्षा करते हैं उसी प्रकार माता मरुदेवी अपने पुत्रोत्पन्न की वेला की प्रतीक्षा करने लगी। समय जाते देर नहीं लगती। फिर सुख की घड़ियाँ कब और कैसे निकल जाती हैं यह आभास भी नहीं हो पाता । धीरे-धीरे नव मास पूर्ण ही गये और लो वह शुभ घड़ी माही तो गई । तीर्थपुर प्रावि प्रभु का जन्म ..
__ ऋतुओं का राजा बसन्त पाया । पीली-पीली सरसों की फूलवाड़ी विस उठी । पादपों ने नव-पल्लव परिधान धारण किया । रसाल वृक्ष मंजरियों से लद गये । कोकिलाएँ पञ्चम स्वर से गाने लगी। मन्दसुगन्ध बहने लगा। लगता था मानों बसन्त अपना सारा वैभव लिए
आदिप्रभु का जन्मोत्सव मनाने आया है। ठीक ही है देव, इन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र सभी उस मंगलवेला को पलक-पांवड़े बिछाये तत्पर हैं तो भला बसन्त क्यों वंचित रहता ? सारी प्रकृति दुलहिन सी सज गई । इसी समय चैत्र कारणा नवमी के दिन सूर्योदय के समय उत्तराषाढ नक्षत्र (अंतिमपाद अभिजित) और ब्रह्म महायोग में श्री ऋषभदेव प्रथम तीर्थ र अवतरित-उदित हुए अर्थात् जन्मे । मति, श्रुत और अवधिसोन ज्ञानों से सहित स्वयंबद्ध भगवान की कान्ति से मरुदेवी का प्रांगन प्रकाशित हो उठा । प्रभु जन्मे परन्तु माता को प्रसव वेदना नहीं हुई । समस्त सृष्टि हर्ष मयी थी। जल-थल और प्रकाश में सर्वत्र हर्षोल्लास छाया था। जिस प्रकार अत्यन्त प्रियजन के परदेश में होने पर उनके शुभ कार्य सूचक चिह्न-नेत्रों का फड़कना, अंगूठे में स्वजली चलना, हिचकी प्राना आदि चिह्न हो जाते हैं उसी प्रकार प्रादिप्रभु के जन्म का ज्ञापक इन्द्रासन कम्पित हो उठा। घंटा, शहा, केहरिनाद, पटह-ध्वनि होने लगी । चतुनिकाय के देवों ने अपने-अपने चिह्नों से जन्म काल शात कर लिया । ये चिह्न किस प्रकार से होते हैं क्या कोई वैज्ञानिक समाधान है ? यदि कोई ऐसा प्रमन करे तो उसका समाधान इस प्रकार है-जिनागम में पुद्गल का महास्कंध जगद्व्यापी माना गया है और