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________________ समनापास्स monilioni करना इत्यादि पाप का नाम भी नहीं था । सर्व प्रजा धर्म, अर्थ और काम का समान रूप से पालन करती थी। उसके वैभव, माज्ञा ऐश्वर्य बराबर चलते थे। किन्तु न्याय, धर्म और विरक्ति भाव भी उतना ही भरा था। "महाराजन ! प्रीतिकर वन में "सर्वगप्त" केवली के शुभागमन से सर्व ऋतुनों के फल-फूल फलित हो गये हैं, जाति-विरोधी जीव बड़े प्रेम से क्रीड़ा कर रहे हैं। उद्यान की श्री अद्वितीय हो गयी है ।" सामने फल-फूल भेंट करते हुए बन पालक ने निवेदन किया। राजा राजचिह्न के अतिरिक्त अन्य आभूषण माली को देकर भगवद्भक्ति प्रकट की, उस दिशा में ७ पैड चलकर भगवान को परोक्ष नमस्कार किया । पुन: परिजन-पुरजन को साथ ले महा-विभूति से प्रत्यक्ष जिन पूजन को चला धर्मोपदेशश सून अपनी भवावली ज्ञात की। दो ही भव शेष हैं जानकर परम सन्तोष हुआ। विवेक महिमा भी अलौकिक होती है । अपने पुत्र पमनाभ को राज्यभार दे दीक्षा धारण की । घोर तप किया । भावलिग होने से मनः शुद्धि शीघ्र होने लगी। ग्यारह अंग का ज्ञान उन्हें शीन हो गया । दर्शन विशुद्धधादि सोलह कारण भावनाओं को भाकर (चिन्तन कर) तीर्थकर नाम कर्म बांधा-अन्त में समाधि कर सहस्रार-बारहवें स्वर्ग में इन्द्र हुआ। स्वर्गावतरण गर्भ कल्याणक... मर्त्यलोक पुण्यार्जन का प्रमुख स्थान है और स्वर्ग उस पुण्य के भोगने का मनोरम उद्यान है। पद्मसेन राजा का जीव १८ सागर की प्रायू भोगोपभोगों में व्यतीत कर अवतरित होने के सम्मुख हुमा, मात्र ६ माह प्रायु बची। इधर भरत क्षेत्र के कापिल्य नगर में इक्ष्वाकु वंशी राजा कृतवर्मा के आंगन में बहुविधि रत्न-वृष्टि होने लगी । क्या करें ? किसे दें ? कहाँ रखें ? यही चर्चा थी सर्वत्र । महारानी जयश्यामा की नानाविधि से देवियाँ सेवा करने लगीं 1 रुचकगिरी निवासिनी देवबालाएं गर्भ शोधना में तत्पर हो गई। रात-दिन कहाँ जा रहे हैं यह भी पता नहीं चला। निदाघकाला गया । रवि प्रताप पूर्ण रूप से भू-पर छा गया। महाराजा कृतवर्मा का कुल प्रताप ही मानों उदय हो रहा है । ज्येष्ठ
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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