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निष्क्रमण कल्पापक
वे विचारने लगे "यह संसार प्रसार है जीवन व्यय होने वाला है। यौवन इलती छाया है । एक मात्र धर्म ही नित्य है । वह धर्म प्रारमस्वभाव रूप है । अब मुझे उसे ही प्राप्त करना चाहिए। उसकी प्राप्ति तप से ही हो सकती है । प्रवश्यमेव तप कर संसार के कारमाभूत कर्म जाल को सर्वथा भस्म करूगा । "इस प्रकार दृढ़ निश्चय कर उन्होंने अपने श्रेयस्कर पुत्र को राज्यभार प्रदान किया। लौकान्तिक देवों ने नाकर उनके वैराग्य का समर्थन किया और अपने ब्रह्मलोक चले गये । सौधर्मेन्द्र प्रवधि से प्रभु को विरक्त जानकर "विमलप्रभा" नाम की पालकी लेकर प्राया। प्रभु का निष्क्रमण कल्याणक अभिषेक किया। अलंकृत कर उनके अभिप्रायानुसार मनोहर नाम के उद्यान में प्राकाश माम से ले गये। वहाँ शुद्ध, निर्मल शिलापट्ट पर रत्नचूर्ण से पूरित स्वास्तिक पर वे विराजे । दो दिन का उपवास धारण कर पूर्वाभिमुख विराज कर फाल्गुण कृष्णा एकादशी के दिन श्रवसा नक्षत्र में सवेरे के समय १ हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण की । उसी दिन उन्हें मनः पर्यय झान उत्पल हमा। अखण्ड मौन से भगवान मनिराज ध्यानारुढ हो गये। पारखा और छमस्म काल-~
दो दिन के बाद वे धीर-वीर, परम वीतरागी मुनीन्द्र आहार के निमित्त चर्या मार्ग से निकले । क्रमश: सिद्धार्थ नगर में गये । वहाँ का राजा नन्द था। उसकी कान्ति सुवर्ण सदृश थी। भगवान मुनिराज को प्राते देख उसने अत्यन्त विनम्न भाव से, नवधाभक्ति पूर्वक परगाहन कर निरंतराय क्षीरान से पारणा करा नव पुण्य बंध किया । पंचाश्चर्य प्राप्त किये। देवों से प्रशंसनीय हआ। अनन्त कर्मों की निर्जरा की । मुनिराज भी निर्दोष पाहार ले तपोलीन हो गये । निरन्तर जान ध्यान और मनः शुद्धि को वृद्धिगत करते हुए दो वर्ष का छदस्य काल व्यतीत किया ।
केबलमान कल्याणक -
दो वर्ष पूर्ण होने पर वे दो दिन का उपवास धारण कर मनोहर उद्यान में तुबुर (पलास) नामक वृक्ष के नीचे निर्विकल्प ध्यानारुक हो
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