SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराषाढ़ नक्षत्र में बननाभि चक्रवर्ती का जीव अहमिन्द्र सर्वार्थसिद्धि । की ३३ सागर आयु पूर्ण कर च्युत हो जगन्माला मरुदेवी की कुक्षी में अवतरित हुप्रा । समस्त पृश्य राशि के सारभूत प्रभ, जिस प्रकार सीम में मोती रहता है उसी प्रकार देवियों द्वारा परिशुद्ध और सुगन्धित द्रव्यों से परिव्याप्त, स्वच्छ, निर्मल मर्भ में अवतरित हुए। जिन माता पाहार करती हैं किन्तु उनके मल-मूत्र नहीं होता, न रजस्वला ही होती हैं । अतः उनका गर्भाशय स्वभाव से निर्मल होता है फिर देवियों द्वारा परम दिव्य गंधादि से संस्कृत होकर पूर्ण शुद्ध हो जाता है । तीर्थ र प्रकृति का महत्त्व..... समस्त कमों को १४८ प्रकृतियों में तीर्थङ्कर प्रकृति श्रेष्ठतम है । यह सातिशय पुण्य का चरम विकास है। लोक में साधारमा गर्भवती नारी की भी परिचर्या कर उसे प्रसन्न रखने की चेष्टा की जाती है, फिर त्रैलोक्याधिपति तीर्थङ्कर की जननी होने वाली माता की देवियां सेवा करें तो क्या प्राश्चर्य है । बे-तार का तार जिस प्रकार सुचना देता है उसी प्रकार स्वर्ग में पुण्य परमाणुओं का तार तीर्थङ्कर प्रभु के कल्यागकों की सूचना पहुंचाते हैं 1 कल्पवासी देवों के घंटा, ज्योतिषियों के सिंहनाद ध्वनि, भन्नमवासियों के शवनाद और व्यन्तरो के पटह-सासे की ध्वनि स्वभाव से ही होने लगती है। आसन कषित होने लगता है जिससे अवधिनान जोड़कर गादि कल्यायों को अवगत कर लेते हैं। अस्तु, इन्द्रादि चतुनिकाय के देव-देवी गरण समन्वित हो नाभिराजा के प्रांगन में प्रा पहँचे । सौधर्मेन्द्र ने सकल देवों सहित संगीत प्रारम्भ किया, प्रचि, देवियां नृत्य करने लगी, कोई मंगलगान गाने लगीं । नाना प्रकार के उत्सव कर स्त्र स्थान को चले गये । किन्तु इन्द्र की आज्ञानुसार दिक्कुमारियां और षट कुलाचल बासिनी श्री, ह्री, वृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी देवियां दासी के समान जिन माता की सेवा में तत्पर हयीं । श्री देवी ने मां का सौन्दर्य बढ़ाया, हो ने लज्जागरण, धति ने धैर्य, कीति ने या, बुद्धि ने तकरणा-विचार शक्ति और लक्ष्मी ने विभूति को वृद्धिगत किया । कोई दर्पण दिखाती तो कोई ताम्बूल लाती, कोई वस्त्र लिए खड़ी रहती तो कोई प्राभूषण, कोई परखा झलती, सेज बिछाना, चौक पूरना, पांव दबाना, उठाना, बैठाना, आहार-पान आदि की व्यवस्था करना आदि कार्य करतीं । कोई स्नान मञ्जन, उबटन द्वारा
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy