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मुख मण्डल दिखलाई देता था। इसीलिए गोल मण्डलाकार सभा होने. पर भी प्रत्येक सभासद संतुष्ट था। तीनों संध्याओं और अर्द्धरात्रि में भी भगवान की दिव्य ध्वनि बिना रुकावट के बराबर खिरती थी । सभा-समवशरण का विस्तार 1 योजन और ३४ कोस था। दत्त (वैदर्भ) को आदि लेकर ६३ गणधर थे । ८००० सामान्य केवली, ४००० पूर्वधारी, २१०४०० शिक्षक-पाठक, ८००० विपूलमति मन: पर्ययज्ञानी, १०६०० विक्रियाद्धिधारी, २००० अवधि ज्ञानी, ७००० वादी, सब मिलाकर २५०००० मुनिराज थे । वरुण श्री मुख्य परिणनी प्रायिका के साथ ३८०००० तीन लाख, अस्सी हजार प्रायिकाएं थी। प्रमुख श्रोता-राजा मघव के साथ ३ लाख श्रावक और ५ लक्ष श्राविकाएँ थीं । विजय या श्याम मासन यक्ष और ज्वालामालिनी महादेवी यक्षी थी । इस प्रकार विशाल समुदाय से प्रापने सम्पूर्ण पाय खण्ड में बिहार कर धर्माम्बु वृष्टि की। प्रापका तीर्थ प्रवर्तन काल १० करोड सागरोपम और ४ पूर्वाङ्ग प्रमाण था। इनके बाद ६४ अनुबद्ध केवली हए । असंख्यात देव देवियों और संख्यातही तिर्यच धर्म श्रवण करते थे। पूजा भक्ति स्तुति करते थे। निर्वाण कल्याणक ---
प्रायु १ मास शेष रहने पर भगवान श्री सम्मेद शिखर की "ललित. कूट" पर आ विराजे । योग निरोध हो गया । समवशरण विघटित हुा । अब धर्मोपदेश नहीं होता था। परम शुक्ल ध्यान के बल पर असंख्यात गुरणी निर्जरा के साथ प्रभु कायोत्सगं से प्रात्मलीन हो गये। । १००० मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण किया । १ महिने का योग निरोध कर फाल्गुन शुक्ला ७ सप्तमी के दिन ज्येष्ठा नक्षत्र में शाम के समय तोसरे शक्ल ध्यान से धौदहवें गण स्थान को प्राप्त कर उसो समय चौथे शुक्लध्यान से शेष कर्मों को प्रशेष विवंशश कर कर्मातीतअशरीरी सिद्ध पद प्राप्त किया। १०७० मुनियों ने भी सह मुक्ति प्राप्त की । इनका चिन्ता चन्द्रमा है।
इन्द्र के साथ देवों ने उसी समय पाकर परिनिर्धारण कल्याणक महोत्सव मनाया । इन्द्राणी और देवियों सहित महा पूजा की। प्रनिकुमार देवों ने अन्तिम संस्कार किया। तदनन्तर नर-नारियों ने अद्भुत महिमा से अष्ट प्रकारो पूजा कर निर्वाण लाडू बहाकर प्रभूत पुण्यार्जन
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