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________________ KAMASWAJ. अर्थात् राज्य में तनिक भी इनकी प्रोति नहीं थी । इन दिनों इन्द्र सुश्रुषा मादि आठ बुद्धि के धारक, शास्त्रों में निपुण, नृत्य-कला में प्रवीण, देखने में सुन्दर, मधुर कण्ठ वाले संगीतकार एवं नाना कलाओं में निपुण देवांगनाओं को बुलाकर भगवान को प्रसन्न करता था । सभो इन्द्रियों के विषयों का सेवन करते थे । शुभ नाम कर्म के उदय से शरीर में १० अतिशय स्वभाव से थे। सबके हितू और प्रिय थे। वे सदा प्रसन्न रहते थे । शरीर कल्याण रूप था वे मति श्रत और अवधिज्ञान से मंडित थे । उनकी कान्ति प्रियंग पूष्प के समान थी। उनकी प्रशुभ-प्रकृतियों का अनुभाग अतिमन्द और शुभ प्रकृतियों का अनुभाग उत्कृष्ट था । मोक्ष के अभ्युदय और ऐश्वर्य का कण्ठहार था। चरण नख की शोभा इन्द्रों के मुखों की कान्ति को भी तिरस्कृत करती थी। आठ वर्ष की वय से प्रत्याख्यान और संज्वलन कषाय का उदय था। स्वभाव से ही देशसंयमी थे । अतः प्रचुर, असीम भोगों का भोग करते हुए भी उनकी प्रसंख्यात गुणी निर्जरा होती थी । अनेकों सुन्दर प्रार्य कन्याओं के साथ उनका विवाह हुमा था । नाना विनोदों को वे अनासक्त भाव से करते थे । अपने अतुल बैभव को भोग के लिए नहीं अपितु दान के लिए समझते थे । सत्य ही है "परोपकाराय सतां विभूतयः" सत्पुरुषों की विभूति विश्व-कल्याण के लिए ही हमा करती हैं। जिनके चरणों में तीनों लोकों की सम्पदा दासी समान निवास करती है उन्हें अपने भोगों की क्या चिन्ता ? प्रायो मात्र उनका था और वे थे प्राणी मात्र के । उनका मुख-दुःख सबका था और सबका सुख-दुःख उनका हा था । इस प्रकार निर्मल विचारों, परिशुद्ध भावना, उज्ज्वल सदाचार से उनके राज्य में अमन चैन था । परन्तु राजकुमार की दशा तो स्वणं पिंजरे में पलने वाले राज शुक (तोते) के समान थी। कब द्वार खुले कि मैं उड़कर स्वतन्त्र बन विहार करू । प्रानन्दोपभोग में बीस पूर्वाध कम एक लाख पूर्व मात्र आयू रह गई । १४ लाख पूर्व से २० पूर्वा कम काल तक राज्य किया। वैराय-- असन्त गया। ग्रीष्म ऋतु प्रायो। जीवन में कितने हो बसन्त पाये, गये पर उन्हें कौन देखे, पहिचाने कौन ? समझे कौन ? ज्ञानी पुरुष । यह भी तभी जब ज्ञान का उपयोग करे। श्री सुपार्श्व के समक्ष आयी ११. ]
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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