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धारण करें ?" मनु नाभि ने अवधिज्ञान से सकल वृतान्त जानकर उन्हें भक्ष्याभक्ष्य पदार्थों की पहिचान और सेवन की प्रक्रिया बतलायी । इक्षुदण्डादि को यन्त्र द्वारा पेलकर रसपान करना सिखाया। दांतों से चरण करना बताया। मिट्टी के पात्र बनाना, भोजन पकाना आदि सिखाया । स्मरणीय है ये सभी मनु पूर्वभव में विदेह क्षेत्र में क्षत्रिय सूरवीर राजा होते हैं सम्यक्त्व होने के पूर्व मनुष्यायु का बंध कर पुन: श्री जिनेन्द्र भगवान के चरण सान्निध्य में क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त कर श्रुतज्ञान का वैशिष्ट लिए यहाँ उत्पन्न होते हैं (यदि पु० प० ३ श्लो० २०६२०६ ) | यहां उत्पन्न होने पर जाति स्मरण और अवधि के बल पर विदेह क्षेत्र के समान ही कर्मभूमि की रचना करते हैं । इसके लिए आदि पुराण क्लो० २०७ से २१२ तक देखना चाहिए ।
प्रथम ५ मनुनों के समय अपराधी को 'हा' कहना मात्र दण्ड की व्यवस्था प्रारम्भ की। 'हा' मात्र सूक्ष्म दण्ड था । हा कहना अर्थात् अपराधी हो इतना मात्र हो पर्याप्त था । बुद्धि विकास के साथ अपराधदोष भी बढ़ने लगे । अतः श्रामे के ५ मनुनों ने 'हा' 'मा' ये दो दण्ड
स्थापित किये। इसका अभिप्राय "तुम अपराधी हो यागे ऐसा मत करता हुश्रा ।
पुनः शेष चार मनुधों और अंतिम मनु नाभिराय के पुत्र श्री वृषभदेव स्वामी ने हा मा, और धिक् ये तीन दण्ड स्थापित किये। इस समय सामान्य साधारण अपराव ही होता था । नाभिराय के पुत्र श्री वृषभ कुमार के काल में भी यही दण्ड व्यवस्था रही । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि मानव संस्कृति का वैज्ञानिक ढंग से क्रमिक विकास हुआ है। गुण और दोषों का समानरूप से प्रचार और प्रसार बढ़ता गया जिसके मध्य से मानवता और दानवता का अन्तर्द्वन्द होकर दानवता पर मानवता की विजय करने वाला भव्य जीव अपना सम्पूर्ण विकास कर अजर-अमर पद-मुक्ति पद प्राप्त करता है । यह कम अनादि से चला खाया है और अनन्तकाल तक चलता ही रहेगा। परन्तु काल परिवर्तन के निमित्त से भोगभूमि से कर्मभूमि और पुनः कर्मभूमि से भोगभूमि का श्राविर्भाव और तिरोभाव के आधार पर हम एक के बाद दूसरे को नवीन युग की संज्ञा प्रदान करते हैं ।
वर्तमान कर्मभूमि का युग है, जिसका श्री गणेश प्रथम तीर्यङ्कर श्री आदिप्रभु से माना जाता है। प्रत्येक उत्सर्पिणी के तीसरे और f c