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________________ कराया था और सिंचाई के लिए प्रणाली (नहर) बनवायी थी, तथा उक्त धर्मकार्यों के लिए भूमिदान : श्री. दिपा था। कदम्बवंश इस वंश की स्थापना कदम्ब नामक वृक्ष-विशेष के नाम पर दूसरी शती ई. के मध्य के लगभष, सातवाहनों के एक सामन्त पुक्कण अपरनाम त्रिनेत्र ने की बतायी जाती है। वनवास देश पर इनका अधिकार था और प्रारम्भ में करहाटक (करहद) इनकी राजधानी थी-कालान्तर में वैजयन्ती हुई। मूलतः ये अपने आपको ब्राह्मण-वंशज कहते थे और सम्भवतया ब्राह्मण-क्षत्रिय-नाग रक्तमिश्रण से उत्पन्न थे। इनका कुलधर्म भी मुख्यतया ब्राह्मण था, किन्तु वंश में अनेक राजे परम जैन हुए। दूसरा राजा ही, शिवकोटि अपने भाई शिवायन के साथ स्वामी समन्तभद्र द्वारा जैनधर्म में दीक्षित कर लिया गया था। शिवकोटि का पुत्र श्रीकण्ठ था और पौत्र शिवस्कन्दवर्मन, जिसके उत्तराधिकारी मयुरवर्मन (तीसरी शती का उत्तराध) के समय में ही कदम्ब राज्य शक्तिसम्पन्न एवं सुप्रतिष्ठित हो सका। उसी ने वैजयन्ती (वनवासी) को राजधानी और हल्सी (पलाशिका) को उपराजधानी बनाया था। उसका पुत्र भगीरथ और पौत्र रघु एवं काकुत्स्थवर्मन थे। काकुत्स्यवर्मन कदम्ब-भाई रघु की युवावस्था में ही मृत्यु हो जाने के उपरान्त उसका उत्तराधिकारी हुआ। यह अल्पवय में ही राजा हो गया लगता है। वह बड़ा नीसिनिपुण, सुयोग्यशासक, दीर्घजीवी महान् नरेश था। उसकी एक पुत्री गंगनरेश तदंगल माधय के साथ यिवाही थी और अविनीत कोगुणी की जननी थी, दूसरी पुत्री थकाटक नरेश के.साथ विवाही थी और तीसरी गुप्तसम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के युवराज कुमारगुप्त के साथ। इन विवाह सम्बन्धों द्वारा उसने तत्कालीन भारत के प्रसिद्ध राजवंशों के साथ मैत्री स्थापित करके अपनी और अपने वंश की प्रतिष्ठा बढ़ा ली थी। उसके लगभग 400 ई. के हल्सी ताम्रशासन से विदित होता है कि यह नरेश जैनधर्म का भारी पोषक था, भले ही वह उसका उद्घोषित अनुयायी न भी हो । उक्त अभिलेख के अनुसार काकुत्स्थवर्मन ने राजधानी पलाशिका के अर्हतायतन के लिए श्रुतकीर्ति को खेटग्राम दान किया था। लेख के प्रारम्भ में भगवान् जिनेन्द्र की जय मनायी है, अन्त में ऋषभदेव को नमस्कार किया है, और दान का उद्देश्य 'आत्मनस्तारणार्थ' (आत्मकल्याण) बताया है। इस लेख में उक्त श्रुतकीर्ति का विशेषण 'सेनापति' दिया है, किन्तु एक परवर्ती कदम्ब अभिलेख में काकुत्स्थवर्मन से समादृत श्रुतकीर्ति भोजक को एक विद्वान् जैन पण्डित (श्रुतनिधि), परमश्रेष्ठ, पुण्यात्मा, दानी और दयावान् सूचित किया है। काकुत्स्थवर्मन का पुत्र एवं इत्तराधिकारी शान्तिवर्मन भी प्रतापी नरेश था और जैसा कि उसके वंशज परिवर्तन के दानपत्र से प्रकट है, यह राजा भी जैनधर्म और जैनमुरुओं का समादर करता था। मंग-कदम्ब-पल्लबल्यालुश्य :: 101
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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