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अतिथिमेची, शनी और निरभिमानी थे। अतएव बुन्देलखण्ड में लो लोकप्रिय हुए ही, समाज में दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गये और अँगरेज अधिकारी भी आदर करते थे। देते रहना और में पाने की आशा-मरना मन्होंने अपने जीवन में दालने का सतत प्रयत्न किया। उनके सम्बन्ध में अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं।
सर सेठ हुक्मचन्द-दानवीर, तीर्थभक्त-शिरोमणि, जैनधर्मभषण, जैन-दिवाकर, जैन सम्राट्, राय बहादुर, राज्यभूषण, सवराजा, श्रीमन्त सेट, के.टी.आई. आदि विविध सार्थक उपाधियों से विभूषित और अपने जीमन में लगभग 80 लाख रुपये का दान करने तथा अनेक धार्मिक एवं सार्वजनिक संस्थाओं के जन्मदाता इन्दौर के सर्वप्रसिद्ध सर सेट हुक्मचन्द का जन्म 1874 ई. में और स्वर्गवास लगभग 85 वर्ष की वृद्धावस्था में 1959 ई. में हुआ। अत्यन्त कुशल व्यापारी, उद्योगी एवं व्यवसायी, अनेक देशी राज्यों के नरेशों के मान्य मित्र और बायसराय आदि अँगरेज अधिकारियों के आदर के पात्र, राजसी ठाट-बाद से जीवन बितानेवाले और अन्तिम कई वर्षों में उदासीन व्रती श्रावक के रूप में आत्मसाधन में लीन इन स्वनामधन्य, इस युग के राजर्षि का जीवन प्रायः पूरी अर्धशताब्दी पर्यन्त जैन समाज के जीवन में ओतप्रोत रहा है। मारवाड़ के लाडनूं प्रदेश के मेंबसिल गाँव के निवासी पूसाजी अपने श्यामाजी एवं कुशलाजी नामक दो पुत्रों के साथ जन्मपूमि का त्याग करके 1787 ई. में अझल्याबाई होलकर के राज्यकाल में इन्दौर में आ असे थे और वहाँ सर्राफ, अफ्रीम और लेन-देन का व्यापार प्रारम्भ किया था। श्यामाजी के तीन पुत्रों में ज्येष्ठ सेठ मानिकचन्द थे जिनके पाँच पत्रों में से द्वितीय पत्र सेट सरूपचन्द थे। इन तरूपचन्द के ही सुपुत्र सर सेठ हुक्मचन्द थे। इनके पुत्र रायबहादुर सेठ राजकुमारसिंह हैं और चचेरे भाई कल्याणमल के दत्तक पुत्र राम बहादुर कैप्टन सेठ हीरालाल हैं।
बाबू देवकुमार आरा के प्रसिद्ध विद्वान जमींदार पण्डित प्रभुदास के पौत्र और बाबू चन्द्रकुमार के सुपुत्र बाबू देवकुमार का जन्म 1876 ई. में हुआ और निधन मात्र 31 वर्ष की अल्पवय में 1988 ई. में हो गया। पिता की मृत्यु के समय इनकी आयु मात्र ।। वर्ष की थी और जमींदारी एवं परिवार का बोझ कन्धों पर आ पड़ा था; तथापि साहस से काम लिया। बड़े सुशिक्षित, प्रबुद्ध, सरलचित्त, उदारमना, विद्याप्रेमी, धर्म और समाज के निःस्वार्थसेती, बड़ी लगनवाले, चरित्रवान एवं धर्मिष्ठ सज्जन थे। जिनवाणी के उद्वार और प्रचार की उत्कट भावना थी। जब 1893 ई. में सि, जैन महासभा ने अपना मुखपत्र 'जैनगजट' चालू किया तो यही उसके सम्पादक हुए और अपनी मृत्यु पर्यन्त बने रहे। इन्होंने 1905 ई. में वाराणसी के भदैनी घाट पर स्थित अपनी धर्मशाला में स्यादवाद पाठशाला की स्थापना की जी आगे चलकर स्यादवाद-महाविद्यालय के रूप में विकसित हुई। उसी वर्ष उन्होंने आरा में अपने सुप्रसिद्ध जैन सिद्धान्त भवन की स्थापना की, जिसकी गणना देश के प्रमुख प्राच्य पुस्तकागारों में हुई। इसी संस्था की द्वैभाषिक पत्रिका जैन-सिद्धान्त-भास्कर
आधुनिक युग : अंगरेडों द्वारा शासित प्रदेश :: ARE '