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थी। वह स्थान घोर वन के मध्य उजाड़ एवं उपेक्षित पड़ा था। चारों ओर बहसूमापरीक्षितगढ़ के गूजरों, नीलोहे के जायें, गणेशपुर के तगाओं और मीरापुर के रांगड़ों का प्राबल्य था, जो बहुधा सरकश लुटेरे थे। जैनधर्म और जैनों के साथ उनकी कोई सहानुभूति नहीं थी। राजा हरसुखराव ने आड़े समय में गूजर राजा नैनसिंह को एक लाख रुपये ऋण दिये थे। वह लौटाने आया तो लेने से इनकार कर दिया और कह दिया कि यह रुपया श्री हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र के उद्धार के नाम लिख दिया गया है, अतएव राजा साहब उऋण होना चाहें तो अपने संरक्षण में वहाँ जैन मन्दिर बनाने
। राजा सहर्ष तैयार हो गया और मन्दिर बन गया। पूर्ण होने पर सेठजी ने पूरे प्रदेश की समाज को एकत्रित किया, भारी मेला किया और नाममात्र का चन्दा करके मन्दिर समाज को समर्पित कर दिया। उन्होंने अन्य अनेक मन्दिर यत्र-तत्र बनवावे, किन्तु किसी अपना जाल बहु के लिए धर्म करते हैं, किन्तु कीर्ति ऐसे ही उदारमना महानुभावों को अमर होती है जो निःस्वार्थ समर्पण भाव से ऐसे कार्य करते हैं।
राजा सुगनचन्द्र- राजा हरसुखराय के स्वनामधन्य सुपुत्र थे, उन्हीं जैसे धर्मनिष्ठ, समाजनिष्ठ, निर्माता, उदारमना और दानवीर थे। कहते हैं कि इन दोनों पिता-पुत्रों ने विभिन्न स्थानों में कोई साठ-सत्तर जिनमन्दिर बनवाये थे। हस्तिनापुर का मन्दिर सम्भवतया लाला हरसुखराय के निधन के उपरान्त सेठ सुगनचन्द्र ने ही पूरा कराया था, बनाना उनके पिता के समय में 1805 ई. के लगभग ही शुरू हो गया था। पिता के निधन के बाद सेठ सुगनचन्द्र को राजा की उपाधि मिली और शाही खजांची पद भी चलता रहा। उन्होंने भी किसी मन्दिर के साथ अपना नाम सम्बद्ध नहीं किया। इस काल में बादशाह की बादशाही लालकिले के भीतर ही सीमित हो चली थी और वह अँगरेजों का पेन्शनदार सरीखे ही था। नगर पर अँगरेज अधिकारियों का शासन था, किन्तु राजा सुगनचन्द्र उस समय भी शाही खजांची बने रहे और अँगरेज अधिकारी भी उन्हें मानते थे । स्वातन्त्र्य समर ( 1857 ई.) के कुछ पूर्व ही उनका स्वर्गवास हो गया लगता है। उनकी उदारता, साधर्मी - वासल्य दानशीलता एवं समाजनिष्ठा के सम्बन्ध में भी अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि धर्मपुरे के मन्दिर के पूर्ण होने के उपरान्त जब समारोहपूर्वक उसकी प्रतिष्ठा की गयी तो मुसलमानों ने हमला करके सारा कीमती सामान लूट लिया, किन्तु इन सेठ द्वय के प्रभाव से बादशाह ने अपने हुक्म से यह सब सामान लुटेरों से वापस दिला दिया था। उस मन्दिर की संगमरमर की वेदी में पत्रीकारी का क़ीमती काम और उसकी सूक्ष्म सक्षणकला आज भी दर्शकों का मन मोह लेती है । दिल्ली का प्रथम शिखरबन्द जैन मन्दिर भी यही है। मुगलकाल में शिखरबन्द मन्दिर बनाने का निषेध था, विशेष शाही अनुमति प्राप्त करके ही सेठ साहब ऐसा कर सके थे। इसके अतिरिक्त दिल्ली के अन्य तीन मन्दिर और हिसार, पानीपत, आमेर,
374 : प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ