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________________ साथ अजमेर ले गये, जहाँ यह उदासीन यत्ति से धर्म और साहित्य की साधना में पुनः लग गये, किन्तु कुछ ही समय के उपरान्त इनका समाधिपूर्वक स्वर्गवास हो गया। मृत्यु से पूर्व जयपुर से अपने शिष्यों पन्नालाल संघी और भंवरलाल सेठी को बुलाकर कहा कि साहित्य का देश-देशान्तरों में प्रचार करने का प्रयत्न करो और एक उत्तम संस्कृत पाठशाला की भी स्थापना करो। गुरु की इच्छानुसार उन्होंने जयपुर में शास्त्रों की बड़े पैमाने पर प्रतिलिपियाँ करने का कारखाना स्थापित किया और पाठशाला भी। परिणामस्वरूप कुछ ही वर्षों में जयपुर के विद्वानों द्वारा रचित ग्रन्थों की सहस्रों प्रतियौं दूर-दूर तक पहुँच गयीं। संघई धर्मदास ने 1795 ई. में आमेर दुर्ग में भट्टारक भुवनकीर्ति के उपदेश से बिम्ब-प्रतिष्ठा करायी थी। सदासुख छाबड़ा जयचन्द छाबड़ा के पुत्र थे और 1800 से 1807 ई. तक जयपुर राज्य में दीवान रहे। अमरचन्द्र पाटनी-दीवान रतनचन्द साह के पौत्र और दीवान श्योजीलाल पाटनी के सुपुत्र थे तथा 1803 से 1835 ई. तक जयपुर राज्य के प्रसिद्ध दीवान रहे. हे धर्मासार या थे। अपनी हवेली के निकट इन्होंने एक विशाल जैनमन्दिर और उसके सम्मुख धर्मशाला बनवायी। मन्दिर का निर्माण कार्य 1815 से 1827 ई. तक बारह वर्ष चला, जिसमें उस युग में चौदह हज़ार रुपये व्यय हुए बताये जाते हैं। लकड़ी पर सोने के काम की सुन्दर समवसरण रचना भी बनवायी। इनका मन्दिर 'छोटे दीवानजी का मन्दिर' नाम से प्रसिद्ध है। जरूरतमन्दों के घर. अन्न-वस्त्र आदि चुपचाप भिजवा दिया करते थे, पानेवाले को यह मालूम ही नहीं होता कि किसने यह कृपा की है। बहुधा लहुओं में मोहर (स्वर्णमुद्रा) रखकर निर्धन व्यक्तियों के घर भिजवा देते थे। मन्दिर में स्वयं अपने हाथ से झाडू लगाते थे। नित्य देवपूजा का तो नियम था। अनेक व्यक्तियों को स्वाध्याय के नियम तथा व्रत आदि दिलवाये थे। पण्डित जयचन्द छाबड़ा के सपुत्र पण्डित नन्दलाल से मूलाचार की वनिका लिखायी। अनेक ग्रन्यों की प्रतिलिपियों करायीं और स्वयं भी अच्छा शास्त्र-संग्रह किया। अनेक सामाजिक रूढ़ियों एवं प्रथाओं में भी सुधार किया। इनके दीवानकाल के अन्तिम वर्षों में जब जयपुर का राजा, सम्भवतया जगतसिंह का पुत्र एवं उत्तराधिकारी सवाई मानसिंह नाबालिग था तो अनेक राजनीतिक षड्यन्त्र चले। इसी प्रसंग में जनता ने एक अंगरेज अधिकारी को भ्रमवश मार दिया। परिणामस्वरूप अँगरेजों का प्रकोप राजधानी पर टूटा। दीयानजी को भय हुआ कि प्रजा का व्यर्थ संहार होगा। उन्होंने बीरतापूर्वक सारा अपराध अपने सिर ले लिया। अँगरेजों द्वारा मठित न्याय समिति ने इन्हें मृत्युदण्ड दिया और यह परोपकारी धर्मात्मा वीर पुरुष आत्मचिन्तन में लीन हो शान्तचित्त से फाँसी के तख्ते पर चढ़ गये और मृत्यु को आलिंगन कर अमर हो गये। आधुनिक युग : देसी राज्य :: 365
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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