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________________ को वापस बुलवाकर राजा मूलराज से उनकी जब्त की गयी जागीरें और अन्य सम्पत्ति पुनः दिलवायी। वे दुष्ट अब भी चुप न बैठे और राजा के पुत्र एवं पौत्रों का पक्ष लेकर राजा के विरुद्ध विद्रोहाग्नि प्रज्वलित करने और मेहता सालिमसिंह को नष्ट करने के लिए षड्यन्त्र रचने लगे। अब मेहता अधिक सहन न कर सका और उसने उक्त शत्रुओं को चुन-चुनकर मौत के घाट उतारकर अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध लिया। इसी मन्त्री सालिमसिंह ने राजा मूलराज के अंगरेजों के साथ सन्धि करने का विरोध किया था। जयपुर राज्य दीवान रतनचन्द साह...साहगोत्री खण्डेलवाल जैन सदाराम के पुत्र और साह यधीचन्द्र के अनुज थे। यह 1756 ई. से 1768 ई. तक जयपुर राज्य के दीवान रहे। कुशल राजमन्त्री होने के साथ ही साथ यह बच्ने धर्मात्मा और विधानुसगी थे। आचार्यकल्प पण्डित टोडरमल्लजी इस समय जयपुर में ही निवास करते थे और अपने महान् साहित्य की रचना में संलग्न थे। दीवानजी उनके बड़े भक्त थे और उनके कार्यों के प्रशंसक थे। सन् 1761 ई. में जब पानीपत के रणक्षेत्र में मराठों के भाग्य का निर्णय हो रहा था तो जयपुर राजा के एक महलग परोहित श्याम तिवारी ने बड़ा साम्प्रदायिक उपद्रव मचाया और आमेर एवं जयपुर के कई जिनमन्दिरों को नष्ट भ्रष्ट कर दिया। उपद्रव की शान्ति पर दीयान रतनचन्द ने आमेर का मन्दिर पुनः बनवाया और जयपुर में एक विशाल पन्दिर अपने भाई बधीचन्द के नाम से बनवाया। इस मन्दिर के गुम्बद में स्वर्ण का दर्शनीय काम बना है, शास्त्रमण्डार भी समृद्ध है। यह मन्दिर शुद्धाम्नाय का बड़ा पंचायती मन्दिर है। जब 1764 ई. में पण्डित टोडरमल्लाजी भाई रायमल्लजी आदि की प्रेरणा से जयपुर में विशाल पैमाने पर इन्द्रध्वज पूजा-महोत्सव किया गया तो रतनवन्द और उनके साथी एक अन्य जैन दीवान बालचन्द उक्त महोत्सव के अग्रेसर थे। उन्होंने राज्य-दरबार से सब सुविधाएँ और बहुमूल्य सामान भी उत्सव के लिए सुलभ करा दिया था। सम्भव है कि उनके ज्येष्ठ माता बधीयन्द्र भी कुछ काल दीक्षान रहे हों। आरतराम बिन्दूका-नेवटाग्राम के निवासी थे और 1757 ई. से 1778 ई. तक राज्य के दीवान रहे। उन्होंने नेवटा में एक जिनमन्दिर बनवाया था और जयपुर की अपनी हवेली में भी चैत्यालय बनवाया था। उनके पिता का नाम ऋषभदास था। बालचन्द छाबड़ा-1761 से 1772 ई. तक राज्य के दीवान रहे। यह भी बड़े धर्मप्रेमी थे। श्याम तिवारी के 1761 ई. के उपद्रवों से जिनायतनों की जो लूट-पाट और क्षति हुई थी उसकी पूर्ति इन्होंने प्रयत्नपूर्वक करायी और अगले वर्ष 1762 ई. में राज्य की ओर से राज्य के 38 परगनों के नाम यह आदेश जारी कर दिया कि जैन लोग निश्चिन्तता से अपने मन्दिर बनाएं, देव-शास्त्र-गुरु की इच्छानुसार पूजा 362 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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