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________________ अंगरेज कम्पनी के प्रतिनिधि सय में लंदयपुर सो देवीचन्द अच्छावत को पुनः राज्य का प्रधान अनाया गया। किन्तु दोहरे प्रबन्ध से सन्तुष्ट नहीं होने से उसने त्यागपत्र दे दिया था। मेहता शेरसिंह-अपरचन्द बच्छावत का पौत्र, देवीचन्द का भतीजा और सीताराम का पुत्र था, राणा जबानसिंह ने उसे अपना प्रधान बनाया था, किन्तु एक वर्ष पश्चात ही उसके स्थान में पता रामसिंह को उस पद पर नियुक्त कर दिया गया, क्योंकि शेरसिंह राज्य की आर्थिक स्थिति नहीं सुधार सका था। शेरसिंह को 1831 ई. में पुनः प्रधान बनाया गया। किन्तु इस बार भी इस पद पर वह अधिक समय नहीं रह सका 1 जवानसिंह की मृत्यु हो गयी थी और उसके उत्तराधिकारी राणा सरदारसिंह ने मेहता शेरसिंह को पदच्युत करके बन्दीगृह में डाल दिया, क्योंकि उसपर अन्य राजकुमारों के साथ मिलकर इस सणा के विरुद्ध षड्यन्त्र करने का सन्देह था। कैद में भी उसके साथ कर व्यवहार किया गया था। अॅमरेज़ पोतीटिकल एजेण्ट की सिफारिश भी काम न आयी। अन्तत: दस लाख रुपये देने का वचन देकर मुक्त हुआ और प्राणरक्षा के लिए जोधपुर चला गया। सरदारसिंह के उत्तराधिकारी राणा सरूपसिंह ने 1844 ई. में मेहता को मारवाड़ से बुलाकर पुनः उदयपुर सज्य का प्रधान बनाया। उसी वर्ष राणा ने शासन प्रबन्ध के सम्बन्ध में पोलीटिकल एजेण्ट से जो इकरारनामा किया था उसपर राज्य के अन्य प्रमुख अमरावों के साथ मेहता शेरसिंह के भी हस्ताक्षर हैं। शेरसिंह का पुत्र जालिमसिंह, जो देवीचन्द के मझले भाई उदयसम की गोद था, इस समय राज्य की सेवा में नियुक्त हो चुका था। राणा ने 1847 ई. में उसे लानागढ़ पर अधिकार करने के लिए भेजा था, किन्तु वह असफल रहा तो स्वयं शेरसिंह ने जाकर उसपर अधिकार किया और विद्रोहियों के सरदार चतरसिंह को बन्दी के रूप में लाकर राणा के सामने उपस्थित किया। राणा ने प्रसन्न होकर खिलअत, बीड़ा, ताजीम का अधिकार आदि से पुरस्कृत किया। इस राणा की इच्छापूर्ति के लिए अंगरेजों से लिखापढ़ी करके मेहता ने सरूपसाही रुपया भी चलवाया। शेरसिंह के ज्येष्ठ पुत्र मेहता सवाईसिंह ने राणा के लिए 1850 और 1855 ई. में विद्रोही भीलों का दमन किया था। शेरसिंह के पौत्र अजीतसिंह ने 1851 ई. में सरकारी डाक को लूट लेने के अपराधी मीनों से युद्ध किया। अजीतसिंह उस समय जहाजपुर का किलेदार था। स्वातन्त्र्य संग्राम (1857 ई.) में राणा ने अँगरेज़ों का पक्ष लिया था और प्रधान शेरसिंह को पोलीटिकल एजेण्ट की सहायतार्थ उसके साथ लगा दिया था, किन्तु स्वयं मेहता से असन्तुष्ट ही रहा, विशेषकर उसके स्वाभिमानी स्वभाव एवं स्पष्टोक्तियों के कारण | अतएव उसने 1863 ई. में अमरेज एजेण्ट के विरोध करने पर भी शेरसिंह की जागीर जज कर ली और जुर्माना लगा दिया था, किन्तु उसे ये आज्ञाएँ वापस लेनी पड़ी। सरूपसिंह के उत्तराधिकारी चालक राणा शम्भूसिंह की रीजेन्सी कौंसिल का सदस्य शेरसिंह ही 952 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं,
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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