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________________ जिनेन्द्र के चरण-कमलों का भ्रमर, सत्य-शौच-गुणान्वित, धार्मिकानणी था और विद्यानन्द मुनि का शिष्य था । स्वयं उसके पटुमण, चन्दन, माणिक आदि पाँच सुयोग्य श्रेष्टि पुत्र थे। राष-करणिक देवरस-वेंकट द्वितीय के इस महालेखाकार ने 1630 ई. के लगभग मलेयूर पर्वत की पार्श्वनाथ-बसदि के तोरणों का जीयोद्धार कराके उस पर जिनमुनियों के बिम्ब स्थापित किये और अपने पिता चन्दप की स्मृति में वहाँ एक दीपस्तम्भ बनवाया था। कारकल के भैररस राजे तुलुदेशस्थ कारकल जैनधर्म का एक प्रमुख केन्द्र रहता आया था और उसके भैररसवंशी राजाओं का कुलधर्म, राज्यधर्म और बहुधा व्यक्तिमत धर्भ भी जैनधर्म ही रहा । तत्कालीन नरेश, सम्भवतया भैरव द्वितीय ने और राज्य के जैन नागरिकों... ने 1879 ई. में कारकल में एक जैन विद्यापीठ की स्थापना की थी और उसमें अध्ययन करनेवाले छात्रों के लिए अनेक वृत्तियों प्रदान की गयी थी, जिनका विचारकर्ता कारकल के तत्कालीन पट्टाधीश भट्टारक ललितकीर्ति को बनाया गया था। इसी राज के भैरव द्वितीय ने जिसे भैरवेन्द्र, भैररसयोडेय और इमडि-भैररस-घोडेय भी कहा गया है और भैरव प्रथम (भैरवराज) का भाममा एवं उत्तराधिकारी था, 1586 ई. में कारकल की प्रसिद्ध गोम्पटदेश प्रतिमा के सामनेवाली पहाड़ी थियकट्ट पर एक भव्य एवं विशाल मन्दिर बनवाया था जो रलत्रय, सर्वतोभद्र या चतुर्मुख-बसदि और त्रिभुवनतिलक जिनवत्यालय कहलाया। मन्दिर में चारों ओर तीन मुख्य द्वारों की दिशाओं में तीर्थकर अरनाथ, मल्लिनाथ और मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमाएँ विराजमान की गयीं और पश्चिम दिशा में चौबीसी तीर्थंकरों की, उनकी यक्ष-यक्षिणियों सहित स्थापना की गयी। राजा मे यह धर्मकार्य स्वगुरु ललितकीर्ति पुनीन्द्र के उपदेश से किया था, जो देशीगण के पनसोगे शाखा के आचार्य थे और कारकत की भट्टारकीय गद्दी पर विराजते थे। मन्दिर में नित्य पूजा करने के लिए स्थानिकों (पुजारियों) के 14 परिवार नियुक्त किये गये, पाली और नायक (गन्धर्व) भी नियुक्त किये गये। मन्दिर में निवास करनेवाले ब्रह्मचारियों को शीतनिवारणार्थ कम्बल, नित्य भोजन तथा आवश्यक सामग्री देने की भी व्यवस्था थी। एलदर्थ राजा में भूमि आदि का प्रभूत दान दिया था, जिससे सब व्यवस्था सुचारू रूप से चली। सोमवंशी काश्यपगोत्री जिनदत्तराय (प्राचीन सान्तरवंश संस्थापक) के वंश में उत्पन्न, मैररसयोडेयर (भैरव प्रथम) की बहन गुम्मटावा और दीरनरसिंह-वगनरेन्द्र का यह कुलदीपक, प्रियपत्र इम्मडिभैररस-वोडेयर (भैरव द्वितीय) अपने शत्रुओं का दमन करनेवाला, सम्यक्त्यादि अनेक गुणगाणालंकृत और जिनगन्धोदक-पवित्रीकृतोतमांग धा। अपने अभ्युदय एवं निःश्रेयसरूप लक्ष्मी एवं सुख की प्राप्ति के लिए उसने यह उत्तर मध्यकाल के राजपूत सज्य :: 345
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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