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तेजपाल के सहयोग से उक्त भट्टारक रत्नचन्द्र में 1626 ई. की भाद्रपद शुक्ला पंचमी गुरुवार के दिन तच्छाधिप सलेमसाहि (जहाँगीर) के सदुराज्य में 'सुभौम चक्रि चरित्र' नामक संस्कृत काव्य को रखकर पूर्ण किया था।
संघई ऋषभदास-मझातीय, लघुशाखा-खरजागोत्री संघई नाकर की भार्या नारंगदे से उत्पन्न उसके पुत्र संघई ऋषभदात ने अपनी भाव एवं पुत्र धर्मदास सहित स्वगुरु महारक पचनन्दि (राजकीर्ति के शिष्य) के उपदेश सेवा में पार्श्व-विव प्रतिष्ठा करायी थी ।
संघपति रतनसी - हूमव जाति की बड़शाखा में उत्पन्न संघवी जाडा बागड़देश से आकर गुर्जरदेश (गुजरात) के अहमदाबाद नगर में बस गये थे। आने के पूर्व अपनी जन्मभूमि में उन्होंने अनेक मन्दिरों का उद्धार कराया था। उनके पौत्र संघवी लटकण और उनकी भार्या ललतादे के पुत्र, अपने कुल के सूर्य, राजा श्रेयांस जैसे दानी, जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा एवं तीर्थयात्रादि कार्यों को करने में उत्सुकचित्त यह संघपति रतनसी थे। इनकी तीन पत्नियों थीं। संघवी रामजी इनके छोटे भाई थे, जिनके पुत्र डुगरती और राघवजी थे । यह परिवार कुन्दकुन्दान्वय-सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण के भट्टारक रामकीर्ति के पट्टधर भट्टारक पद्मनन्दि का आम्नाय शिष्य था । स्वगुरु के उपदेश से संघपति रतनसी ने अपने भाई, भतीजों और परिवार की महिलाओं सहित शत्रुजयतीर्थ की यात्रा की थी और वहाँ बादशाह शाहजहाँ के राज्य में 1629 ई. मैं दिगम्बर जैन मन्दिर में भगवान् शान्तिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। सम्भवतया यह मन्दिर भी इन्हीं का बनवाया हुआ था।
संघाधिप भगवानदास - भट्टारक जगत्भूषण की आम्नाय में गोलापूर्ववंशी दिव्यनयन नामक श्रावक थे। उनकी पत्नी दुर्गा और पुत्र चक्रसेन एवं मित्रसेन थे । दुर्गा प्रोषधोपवास के नियमवाली धर्मात्मा महिला थी। चक्रसेन की पत्नी कृष्णा और केवलसेन एवं धर्मसेन नाम के पुत्र थे । मित्रसेन बड़े प्रतापवान् और धर्मात्मा थे। उनकी सुशीला प्रिय पत्नी यशोदा से भगवानदास और हरिवंश नामक दो पुत्र हुए। enerate की शुभानना भार्या केशरिदे थी और महासेन, जिनदास एवं मुनिसुव्रत नाम के तीन सुपुत्र थे। भगवानदास भगवान् जिनेन्द्र के चरणों के परम भक्त, वाक्पूर्ण प्रताप, उदार और धर्मात्मा थे। उन्होंने जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिष्ठा करायी थी, सम्भवतया जिनमन्दिर बनवाकर बिम्ब-प्रतिष्ठा करायी थी। उनके धर्मोत्साह के लिए समाज ने उन्हें 'संघराज' पदवी प्रदान की थी। भरतेश्वर, श्रेयांस, कर्ण, देवेन्द्र, देवगुरु और राजराज आदि से उनके प्रशंसक कवि ने उनकी उपमा दी है। परम विद्वान् पाण्डे रूपचन्द्र ने उनके आश्रय में, उनके द्वारा सम्बोधित होकर, इन्द्रप्रस्थपुर (दिल्ली ) में, चगताईवंशी शाहजहाँ के राज्य में, 1685 ई. में 'भगवत्समवसरणार्चनविधान' (समवसरणपाठ) की संस्कृत भाषा में रचना की थी। पण्डित रूपचन्द्र स्वयं कुरुदेशस्थ सलेमपुर निवासी गर्गगोत्री अग्रवाल श्रावक मामट के पौत्र, सबसे छोटे किन्तु
316 : प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ