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कहा जाता है कि एक बार राजा ने इनसे जैनमुनि का अभिनय करने के लिए कहा, तो यह घरवार छोड़कर सच्चे मुनि बन गये। इनका कहना था कि जैनमुनि का अभिनय नहीं किया जा सकता, जो एक बार मुनि वन गया तो बन ही गया। लोकमानस में उनकी ऐसी छाप पड़ी थी कि उनके लगभग 150 वर्ष बाद कवि छत्रपति ने उनके जीवन को लेकर 'ब्रह्मगुलालचरित्र (1877 ई.) की रचना की थी। पण्डित बनारसीदास - ( 1586-1643 ई.) आगरा के मुग़लकालीन सुप्रसिद्ध जैन महाकवि, अध्यात्मरस के रसिया, समाज-सुधारक, विद्वान् पण्डित और व्यापारी बनारसीदास बीहोलिया-गोत्री श्रीमाल वैश्य थे। उनके पितामह मूलदास 1551 ई. के लगभग नरवर (ग्वालियर) के मुग़ल उमराव के मोदी थे और मालामह (नाना ) मदनसिंह चिनालिया जौनपुर के नामी जौहरी थे, तथा पिता खरगसेन ने कुछ काल बंगाल के पठान सुलतान सुलेमान के राज्य में दीवान धन्नाराय के अधीन चार परगनों की पोतदारी की, तदनन्तर इलाहाबाद में शाहजादा दानियाल की सरकार में जवाहरात के लेन-देन का कार्य किया और अन्त में जौनपुर में ही बसकर जवाहरात का व्यापार करते रहे। बनारसीदास भी किशोरावस्था से ही व्यापार में पड़े। जवाहरात के अतिरिक्त उन्होंने अन्य कई व्यापार किये, किन्तु इस क्षेत्र में प्रायः असफल ही रहे, तथापि काम चलता ही रहा। अन्त में जौनपुर छोड़कर स्थायीरूप से आगरा में बस गये जहाँ उन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की, एक विद्वन्मण्डी का निर्माण किया और अपनी 'शैली' या गोष्ठी प्रारम्भ की। उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गयी- सुदूर सिन्ध-देशस्थ मुलतान के श्रावकों ने भी उनसे सम्पर्क रखे। लोक-प्रतिष्ठा और शासकों से भी उन्हें सम्मान मिला। जौनपुर के सूबेदार चिकलीचखाँ को उन्होंने 'श्रुतबोध' आदि पढ़ाये थे, स्वयं सम्राट् शाहजहाँ ने उन्हें अपना मुसाहब बनाया था और मित्रवत् व्यवहार करता था। ऐतिहासिक दृष्टि से बनारसीदासजी की सर्वोपरि उपलब्धि उनका अद्वितीय आत्मचरित्र 'अर्थकथानक' है जिसमें उन्होंने अपने 55 वर्ष ( 1586-1641) ई. का निष्कपट सजीव चित्रण किया है, साथ ही अपने पूर्वपुरुषों, शासकों, शासन व्यवस्था, लोकदशा इत्यादि का बहुमूल्य परिचय प्रदान किया है। उससे पता चलता है कि उस युग में पंजाब - सिन्धु से लेकर बंगाल पर्यन्त सम्पूर्ण उत्तर भारत में श्रीमाल, ओसवाल, अग्रवाल आदि जातियों के जैन व्यापारी फैले हुए थे और उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। सम्राटों, सुबेदारों, नवाबों और स्थानीय शासकों से उनका विशेष सम्बन्ध रहता था। वे लोग अधिकांशतया सुशिक्षित भी होते थे। स्वयं बनारसीदास प्राकृत और संस्कृत के अतिरिक्त विविध देश-भाषा-प्रतिबुद्ध थे और फारसी भी जानते थे । तिहुना साहु-आगरा के अग्रवाल जैन सेठ थे। उन्होंने एक विशाल जिनमन्दिर बनवाया था। आगरा में तिहुना साहू के इसी देहरे (मन्दिर) में रूपचन्द्र नाम के गुणी विद्वान् 1835 ई. के लगभग बाहर से आकर कुछ दिन ठहरे थे। उनके
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314 प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ
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