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________________ क्योंकि हि ने उनकी आपद् का निवारण किया है। यह संदैव वर्ष में छह मास एक संघ को आहार देगा, चेन्नव्य माली ने धर्मसाधन दिया, क्योंकि सेटि ने उसकी भूमि रहन से मुक्ति कर दी है; वह अमुक धर्म - कार्य करेगा इत्यादि । रानी काल देवी- कार्कल नरेश वीर मैररस बोडेयर की छोटी बहन थी जो बगुजि सीमे की रक्षिका एवं शासिका थी। उसने 1530 ई. में अपने कुलदेवता कल्ल-वसदि के पाश्र्व तीर्थकर की नित्य पूजा के लिए भूमिदान दिया था। जब उसकी पुत्री कुमारी रामादेवी की मृत्यु हो गयी तो उसने उसकी स्मृति में भूमि, चावल, तेल, धातु आदि के विविध दान दिये थे। काललदेवी और वीर भैररस की माता का नाम बोम्मल देवी था और पिता का शायद बोम्मरस वीर गैररस ( भैरवपाल ) वादी विद्यानन्द का भक्त था और सम्भवतया भव्यानन्दशास्त्र के रचयिता पाण्ड्य क्षमापति और वर्धमान द्वारा 1542 ई. में उल्लिखित पाण्ड्यराज यही था । उसकी रानी भैरवाम्बा सालुववंश की राजकुमारी थी और बड़ी जिनभक्त धर्मात्मा थी । वीरव्य नायक--सम्राट् कृष्णादेवराय का एक सामन्त था और चामराजनगर का शासक था जो एक प्राचीन गंग्रवंशकालीन .. बस्ती थी। वीरख नायक ने 1517 न ई. में वहाँ एक जिनमन्दिर बनवाकर उसके लिए "दिया था। गेरुसप्पे के शासक ये भी परम जैन थे, कृष्णादेवराय के सामन्त थे । इन्होंने 1528 ई. के लगभग उक्त नगर में कई जिनमन्दिर बनवाये थे और दान दिये थे। तोलवदेश में अम्बुनदी के दक्षिण तट पर स्थित क्षेमपुर नगर में इन सोमवंशी काश्यप गोत्री क्षत्रियों का राज्य था। इनके कुलदेवता नेमिनाथ तीर्थंकर थे और गोम्मटेश के ही वे भक्त थे। इस वंश में देवमहीपति नाम का भूपाल चूडामणि हुआ जिसने गोम्मटेश का महामस्तकाभिषेक कराया था। उसके वंश में कई राजाओं के उपरान्त जिनधर्मरूपी समुद्र के लिए चन्द्रमा के समान भैरव भूपति हुआ जिसके छोटे भाई भैरव, अम्ब क्षितीश और साल्वमल्ल (सालुबमल्लराय ) थे। साल्यमल्ल सबसे छोटा होते हुए भी सबसे महान था । वह सोमवंशाब्जभान, बुधजन के लिए कामधेनु, जिनेन्द्र की रथयात्राएँ करानेवाला, सद्गुणो और चरित्रवान् था। इस राजा का उत्तराधिकारी उसका भानजा देवराय हुआ जो सप्तोपाय- विचार - चारु चतुर था और अपने मातुल की भाँति ही राज्य एवं नगर का समर्थ रक्षक एवं शासक था। उसका भानजा साल्वमल्ल (द्वितीय) था, जिसका अनुज भैरवेन्द्र था। ये सब बड़े धर्मात्मा जिनभक्त बीर और पराक्रमी थे। राजा देवराय राजगुरू पण्डिताचार्य के चरणकमती का भ्रमर था और अपने उक्त मानजों एवं अन्य परिवार के साथ तुलुकोकण-हैये प्रदेश पर 1560 ई. के लगभग सुखपूर्वक शासन कर रहा था। उस समय उसके राज्यश्रेष्ठि अम्बुवण सेठ ने मानस्तम्भ बनवाकर महान् धर्मोत्सव किया था और दान दिये थे । योजण श्रेष्ठि कोंकण, हैव और बनवासिपुर के अधीश्वर चन्दाउरकदम्ब मध्यकाल पूर्वार्ध : 297
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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